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जो कल्प काल में होत सिद्ध, तुम छिन ध्यावत लहिये प्रसिद्ध । । सिद्धः भवि पतितन को उद्धार हेत, हस्तावलम्ब तुम नाम देत ॥५॥
तुम गुण सुमिरण सागर अथाह, गणधर शरीर नहीं पार पाह । जो भवदधि पार अभव्य रास, पावे 'न वृथा उद्यम प्रयास ॥६॥ जिन मुख द्रहसो निकसी अभंग, अति वेग रूप सिद्धान्त गंग। । नय सप्त भंग कल्लोल मान, तिहुँ लोक बही धारा प्रमान ॥७॥
सो द्वादशांग वाणी विशाल, ता सुनत पढ़त आनन्द विशाल । इयाते जग मे तीरथ सुधाम, कहिलायो है सत्यार्थ नाम ॥८॥
सो तुम ही सो है शोभनीक, नातर जल. सम जु वहै सु ठीक । निजपर प्रातम हित आत्म-भूत, जबसे है जब उतपत्ति सूत ॥६॥
ज्यो महाशीत ही हिम प्रवाह, है मेटन समरथ अगिन दाह । इत्यों आप महामंगल स्वरूप, पर विधन विनाशन सहज रूप ॥१०॥
है सन्त दीन तुम भक्ति लीन, सो निश्चय पावै पद प्रवीण। । तातै मन वच तन भाव धार, तुम सिद्धनकूमम नमस्कार ॥११॥
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