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यथाख्यात चारित्रको, जोनो मानो भेद । सिद्ध० आत्मज्ञान केवल थकी, पायो पद निरभेद ॥ ही अहं योगज्ञायकाय नमःप्रय|५७७। वि० धर्ममूर्ति सर्वस्व हो, राजत शुद्ध स्वभाव ।
धर्ममूर्ति तुमको नमू,पाऊं मोक्ष उपाव॥ ॐ ह्री अहं धर्ममूर्तये नम. अयं ।।५७८।। स्व प्रातम परदेशमें, अन्य मिलाप न होय।। प्राकृतिहै निजधर्मकी, निज विभावको खोय॥ही अहंमदेहाय नम अयं ।५७६ स्वामीहो निजात्म के, अन्य सहाय न पाय । स्वयं सिद्ध परमातमा, हम पर होउ सहाय॥ ह्रीमहं ब्रह्मेशाय नम अर्घ्य ।५८० । निज पुरुषारथ करि लियो, मोक्ष परम सुखकार । करना था सो करि चुके, तिष्ठ सुख आधार ॥ॐ ह्री प्रहं कृतकृतये नम अयं ।५८१ असाधारण तुम गुण धरत, इन्द्रादिक नहीं पाय । लोकोत्तम बहुमान्य हो, बदू हूँ युग पाय॥ ही महं गुणान्मकाय नम प्रध्य।।५८२।। पूजा तुम गुण परम प्रकाश कर, तीन लोक विख्यात । सूर्य समान प्रतापधर, निराकरण उघरात ॥ॐहीमह निराकरण गुणप्रकाशायनम •
अष्टम
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