Book Title: Siddhachakra Vidhan
Author(s): Santlal Pandit
Publisher: Veer Pustak Bhandar Jaipur

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Page 436
________________ सिद्ध वि० दोहा--कहैं कहालो तुम सुगुण, अंशमात्र नहीं अन्त । मंगलीक तुम नाम ही, जानि भजै निज 'संत' ॥१॥ ह्री अर्ह पूर्णस्वगुणजिनाय नम' अर्घ्य, पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा । - अथ' जयमाला । दोहा--होनहार तुम गुण कथन, जीभ द्वार नहीं होय। । काष्ठ पांवसै अनिल थल, नाप सके नहीं कोय ॥१॥ सूक्षम शुद्ध स्वरूपका, कहना है व्यवहार ।। सो व्यवहारातीत है, यातें हम लाचार ॥२॥ पै जो हम कछु कहत है, शान्ति हेत भगवन्त । वार वार थुति करनमे, नहिं पुनरुक्त भनन्त ॥३॥ पद्धडी छन्द मात्रा-१६ । जय स्वयं शक्ति प्राधार योग, जय स्वयं स्वस्थ आनंद भोग । जय स्वयं विकास प्राभास भास, जय स्वयं सिद्ध निजपद निवास॥४॥ अष्टम ४०२

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