Book Title: Siddhachakra Vidhan
Author(s): Santlal Pandit
Publisher: Veer Pustak Bhandar Jaipur

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Page 434
________________ सिद्ध वि० ४.० केवल ऋद्धि महान है, अतिशय युत तप सार। सो तुम पायो सहज हो,मुनिगरण बंदनहार ॥ह्रोग्रहमहाऋषये नम अयं । १० १३ भूत भविष्यत् कालको, कभी न होवे अन्त । नितप्रति शिवपद पायकर, होत अनंतानंत ॥ ह्रींग्रहअनन्तसिद्धेभ्योनम अध्य।१०१४ निर्भय निर आकुलित हो, स्वयं स्वस्थ निरखेद । काहू विधि घबाट नहीं,निज आनंद अभेद ॥ॐ ह्रीग्रह प्रक्षोमायनम'मध्यं ।१०१५ जो गुण गुरपी सुभेद करि, सो जड़ मती अजान । निज गुरण गुरणी सु एकता,स्वयंबुद्ध भगवान ॥ॐ ह्रीमहस्वयबुद्धाय नम अध्यं।१०१६ निरावरण निज ज्ञानमे, सर्व स्पष्ट दिखाय । संशयविन नहिं भरमहै,सुथिर रहो सुखपाय ॥ ह्रीअर्हनिरावरणज्ञानायनम अध्या । राग द्वेष के अंश मे, मत्सर भाव कहात । सो तुम नासो मूल ही, रहै कहांसो पात ॥ॐह्रीग्रह वीतमत्सराय नम अयं ।१०१८। पूजा अणुवत् लोकालोक है, जाके ज्ञान मझार । ४०० सो तुम ज्ञान अथाह है, बंदू मै चितधार ॥ॐ ह्रीमहंप्रनन्तानन्तज्ञानाय नम अध्य।१०१६/ अष्टम

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