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सिद्ध
हस्तरेख सम देख हो, लोकालोक सरूप । वि० सो अनंत दर्शन धरो, नमत मिटै भूम कूप ॥हीअहंप्रनतानतदर्शनाय नम अयं । है ४०१ तीन लोकका पूज्यपन, प्रकट कहै दिखलाय ।
। तीनलोक शिरवास है, लोकोत्तम सुखदाय ॥ ह्रीमहलोकशिखरवासिने नम अध्या है ईनिज पदमे लवलीन है, निज रस स्वाद अघाय। . । परसों इह रस गुप्त है, कोटि यत्न नहीं पाय॥ ह्रीहंसगुमात्मनेनम अयं । १०२२ १
कर्म प्रकृतिको मूल नहीं, द्रव्य रूप यह भाव । महा स्वच्छ निर्मल दिपै,ज्यो रवि मेघप्रभाव ॥ ह्रीमहंपूतात्मनेनम प्रय हीन अभाव न शक्ति है, कर्मबन्धको नाश ।
अष्टर उदय भये तुम गुणसकल,महा विभवको राश ॥ ही अहमहोदयाय नम अर्घ्य १०२४४ जना पाप रूप दुख नाशियो, मोक्ष रूप सुख रास । दासन प्रति मंगलकरण,स्वयं'संत'हैदासाह्रींमहं महामगलात्मकजिनाय नम प्रध्वं ।।
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