Book Title: Siddhachakra Vidhan
Author(s): Santlal Pandit
Publisher: Veer Pustak Bhandar Jaipur

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Page 421
________________ mms व. निज रसके सागर धनी, महा प्रिय स्वादिष्ट । अमर रूप राज सदा, सुर मुनिके हो इष्ट ॥ॐ ह्री पह प्रमृताय नम प्रध्य ॥९२२॥ २० पूरण निज आनन्दमें, सदा जागते आप। नहिं प्रमादमे लिप्त है, पूजत विनशे पाप॥ ही महं नापते नम.प्रय।।१३। क्षीरण ज्ञान ज्ञानावरण, करै जीवको नित्य । । सो पावर्ण विनाशियो, रहो अस्वप्न सुवित्य ॥ ह्रींपई पमुभाय नमः स्व प्रमारणमे थिर सदा, स्वयं चतुष्टय सत्य। निराबाध निर्भय सुखी,त्यागतभाव असत्य॥ॐ ह्रीमहंम्बप्रमाणस्थितायनमःम ६२५३ श्रमकरि नहिं पाकुलितहो, सदारहो निरखेद। स्वस्थरूप राजो सदा, वेदो ज्ञान अभेद ॥ हीपई निरामिनिनाय नम प्रध्या १६ मन वच तन व्यापार था, तावत रहो शरीर । ताको नाश अकंप हो, बन्दूँ मन धर धीर॥ॐ ह्रीं प्रहं प्रयोगिने नम प्रय।।१२७॥ पूजा जितने शुभ लक्षण कहे, तुममे हैं एकत्र । ६३८० तुमको बंदू भावसों, हरो पाप सर्वत्र॥ ह्रीपई पतुरणीतिलक्षणाय नम पत्र्यं ।६२८15 अष्टम VIRM

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