Book Title: Siddhachakra Vidhan
Author(s): Santlal Pandit
Publisher: Veer Pustak Bhandar Jaipur

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Page 426
________________ मोक्षरूप शभ वासके, आप मार्ग निरखेद । मिद्ध भविजन सुलभगमन करै, जगत वासको छेद ॥ ह्रींप्रहशिवपुरीपयायनमःअध्य९५७ वि०१ गुरणसमूह अत्यन्त है कोई न पावै पार । थकित रहेश्रुतकवली,निज बल कथनअगार ॥ह्रांग्रहअनन्तगुणसमूहजिनायनमः० इक अवगाह प्रदेशमे, हो अवगाह अनन्त । पर उपाधि निग्रहकियो,मुख्य प्रधान अनंत ॥ॐ ह्रींमहंपरउपापिनिग्रहकारकजिनाय० स्वयं सिद्ध निज वस्तु हो, आगम इन्द्रिय ज्ञान । कादिक लक्षण नहीं, स्वयं स्वभाव प्रमान ॥ॐ ह्रींमहंस्यप सिद्धजिनायनमःअध्य। हो प्रछन्न इन्द्रिय अगम, प्रकट न जाने कोय। सकलगुणको लकियो,निजातमसेखोय ॥ोह्रीमह इन्द्रियागम्यजिनायनम प्रय निज गुण करि निज पोषियो, सकल क्षुद्रता त्याग। पूरण निजपद पाय करि, तिष्ठत हो बड़भाग॥ोह्रीं ग्रहं पुष्टाय नमःअयं ।९६२॥ पूजा ब्रह्मचर्य पुरण धरै, निजपद रमता धार । ३९२ सहसपठारह भेदकरि,शील सुभाव सुसार॥ॐ ह्रीप्रहं मष्टादशसहस्रशीलेश्वरायनमः । अष्टम

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