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सिद्ध स
गौरण रूप परिणाम है, मुख धु वता गुरण धार । अक्षयप्रविनश्वरस्वपद,स्वस्थसुथिर अविकार॥ह्रीमहं प्रक्षयाय नमःअध्यं ९८५ सक्षम शुद्ध स्वभाव है, लहै न गरणधर पार। इन्द्र तथा अहमिन्द्र सन, अभिलाषितउरधार॥हीअहं अगम्यायनम अध्य।९८६ ।। अचल शिवलायके विषै, टंकोत्कीर्ण समान । सदाविराजो सखसहित,जगत भमरणको हान ॥ ह्रीमहं अगमकायनमःअध्या९८७ रमरण योग छद्मस्थके, नाहि अलिंग सरूप । पर प्रवेश विन शुद्धता, धारत सहज अनूपपोह्री प्रहं भरम्याय नम अध्यं ।९८८ पर पदार्थ इच्छुक नहीं, इष्टानिष्ट निवार । सथिर रहो निज आत्ममे, बंदत हूँ हितधार॥ोह्रीमहनिजात्मसुथिराय नम.अध्यं । जाको पार न पाइयो, अवधि रहित अत्यन्त । सो तम ज्ञान महान है, आशा राखे संत्त॥ोह्रीं पहँ ज्ञाननिमंराय नमःमयं ॥१६० अष्टम मनिजन जिन सेवन करै, पावै निज पद सार। महा शुद्ध उपयोग मय, वरतत हैं सुखकार ॥ॐह्रीमहमहायोगीश्वरायनमःमध्यं ॥ २९५
पूजा