Book Title: Siddhachakra Vidhan
Author(s): Santlal Pandit
Publisher: Veer Pustak Bhandar Jaipur

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Page 431
________________ भाव शुद्ध सो देहमे, द्रव्य शुद्ध विन देह । सिद्धः कर्म वर्गरणा विन लिये, पूजत हूँ धरि नेह॥ॐह्रीप्रहं द्रव्यशुद्धाय नम प्रध्यं ।९१२॥ वि० पंच प्रकार शरीरको, मूल कियो विध्वंश । ३९७ स्व प्रदेशमय राजते,पर मिलाप नहीं अंश ॥ॐ ह्री प्रहं प्रदेशाय नम प्रयं । ६६३। जाको फेर न जन्म है, फिर नाहीं संसार। सो पंचमगति शिवमई, पायो तुम निरधार ॥ ह्रींपह पपुनभगायनम प्रय। सकल इन्द्रियां व्यर्थ करि, केवलज्ञान सहाय । सब द्रव्यनिको ज्ञान है, गुरण अनंत पर्याय ॥ ही प्रहं जानकांवदे नमःप्रय 1880 जीव मात्र निज धन सहित, गुरण समूह मरिण खान। अन्य विभाव विभव नहीं, महा शुद्ध अविकार ॥ॐ ह्रींग्रहनीवधनायनमःप्रयं सिद्ध भये परसिद्ध तुम, निज पुरुषारथ साध। महा शुद्ध निज प्रात्म मय,सदा रहे निरबाध ॥ॐ ह्रीग्रह मिनाय नम प्रय। १९७ प्रष्टम लोकशिखरपर थिर भए, ज्यो मंदिर मरिण कुम्भ । निजशरीर अवगाहमें,अचल सुथान अलुम्भ ॥ॐ ह्रीपहनोकास्थितायनम अध्यं ६ पूजा 1 ३६८

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