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सिद्ध०
वि०
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तेज प्रचण्ड प्रभाव है, उदय रूप परताप ।
अन्य कुदेव कुप्रा गिया, जुग जुग धरत कलाप ॥ ॐ ह्रीय प्रज्वलितप्रभावाय नम श्र भये निरर्थक कर्म सब, शक्ति भई है होन ।
तिनको जीते छिनकमे, भये सुखी स्वाधीन॥ह्री ग्रह ममस्तकर्मक्षय जिनाय नम प्र कर्म प्रकृतिक रोग सम, जानी हो क्षयकार |
निज स्वरूप श्रानन्दमे, कहो विगार निहार ॥ॐ ह्रो ग्रहं कर्मविस्फोटकायनम ग्र हीन शक्ति परमादको, आप कियो है अन्त ।
निज पुरुषार्थ सुवीर्ययो, सुखीभए सुप्रनंत ॥श्रीर्हं प्रनतवीर्यंजिनाय नम अर्घ्यं ११८ एक रूप रस स्वादमे, निर श्राकुलित रहाय ।
विविध रूपरस पर निमित, ताको त्यागकराय ॥ ॐ ह्रीम एकाकार रसास्वादाय नम इन्द्री मनके सब विषय, त्याग दिये इक लार ।
निजानंदमे मगन हैं, छांडो जग व्यापार ॥ ॐ ह्री पनिश्वाकार र साकुलितायनमःश्रध्यं । पर सम्बन्धी प्रारण विन, निज प्रारणानि प्राधार । सदा रहे जीतव्यता, जरा मृत्यु को टार ॥ॐ ह्री ग्रह मदाजीविताय नम अयं । १२१॥
अष्टम
पूजा
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