Book Title: Siddhachakra Vidhan
Author(s): Santlal Pandit
Publisher: Veer Pustak Bhandar Jaipur

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Page 412
________________ ३७८ पर निमित्तके योगतै, ब्यापै नहीं विकार। निज स्वरूपमें थिर सदा, हो अबाध निरधार॥ह्री ग्रह निराबाधापनम अध्यं ८५६ सिद्ध० चारवाक वा सांख्यमत, झूठी पक्ष धरात। 'अल्प मोक्ष नहीं होत है, राजत हो विख्यात ॥ोह्रीमहं निरामावाय नम अध्य।८६० तारण तरण जिहाज हो, अतुल शक्तिके नाथ । भव वारिधि सेपारकर, राखो अपने साथ ॥ ह्रींप्रहमववारिधिपारकरायनमःप्रयं बन्ध मोक्षको कहन है, सो भी है व्यवहार । तम विवहार प्रतीत हो, शुद्ध वस्तु निरधार॥ ह्रीमहंववमोक्षरहिताय नमःअध्यं । चारो पुरुषारथ विषै, मोक्ष पदारथ सार । तमसाधो परधान हो, सबम सुख प्राधार॥ह्रीं अहं मोक्षसाधनप्रधानजिनायनम कर्ममल प्रक्षालक, निज प्रातम लवलाय । शिवथलविषै, अन्तरमल विनशाय ॥ह्रींमहकर्मवधमोक्षरहितायनम अध्ये अष्टम निज सभाव जिन वस्तुता, निज सुभावमें लीन । पूजा बंद शद्ध स्वभावमय, अन्य कुभाव मलीन ।। ह्रीमहनिजस्वभावस्थितिजिनायनमः ३७८

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