Book Title: Siddhachakra Vidhan
Author(s): Santlal Pandit
Publisher: Veer Pustak Bhandar Jaipur

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Page 415
________________ निज समरथ कर साधियो, निज पुरुषारथ सार। सिद्ध सिद्ध भये सबकाम तुम, सिद्ध नाम सुखकार । ह्रौंग्रह सिद्धकर्मक्षयाय नमःमध्य८८०१ वि० । पृथ्वी जल अगनी पवन, जानत इनके भेद । ३८१ । गण अनंत पर्याय सब, सो विभाग परिछेद ॥ॐह्री प्रहं मिथ्यामनिवारकाय नम.पघ्या, निज सवेदन ज्ञानमे, देखत होय प्रत्यक्ष । रक्षक हो तिहुँ लोकके,हम शरणागत पक्ष ॥ॐ ह्रीग्रह प्रत्यक्षकप्रमाणाय नम अध्यं ।। विद्यमान शिवलोकमे, स्वगुरण पर्य समेत । कहै अभाव कुमतीमती, निजपर धोका देत॥हीग्रह अम्तिमुक्ताय नम:प्रय।३८८ । तुम आगमके मूल हो, अपर गुरू हैं नाम । है तुम वानी अनुराग ही, भये शास्त्र अभिरामहीमहं गुरुश्रुतये नमःअध्यं ।८५४। तीन लीक नाथ हो, ज्यो सुरगरणमें इन्द्र। निजपद रमन स्वभावधर, नमे तुम्है देवेन्द्र।।ॐ ह्रींअहँ त्रिलोकनाथाय नमःप्रय।८८५॥ अष्टम सब स्वभाव अविरुद्ध है, निजपर घातक नाहिं। पूजा सहचारी परिणाम है, निवसत है तुममाहि॥हीग्रह स्वस्वभावाविरुद्ध जिनाय नम mmmmmmmmmmunimum ३३८३

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