Book Title: Siddhachakra Vidhan
Author(s): Santlal Pandit
Publisher: Veer Pustak Bhandar Jaipur

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Page 401
________________ पर पदार्थ को इष्ट लखि, होत नहीं अभिमान । सिद्ध हो अबंध इस कर्मते, स्व आनद निधान ॥ॐ ह्रीं ग्रहं कुमुदयाघव वि० संबं विभावको त्यांग करि, है स्वधर्ममें लीन । ३६७ । तातें प्रभुता पाइयो, है नहीं बन्धाधीन ॥ॐ ह्रीं अहं धर्मरतये नम अध्यं ॥७॥ आकुलता नहीं लेश है, नहीं रहै चित भंग। सदा सुखी तिहुँ लोकमे, चरन नमू सब अंग॥ॐ ह्रीं पहँ प्राकुलतारहितजिनायनम शुभ परिणति प्रकटायके, दियो स्वर्गको दान । धर्मध्यान तुमसे चले, सुमरत हो शुभ ध्यान॥ॐह्री अहंपुण्यजिनाय नमःअध्य।७८३ १ भविजन करत पवित्र अति, पाप मैल प्रक्षाल। ईश्वर हो परमातमा,नसंचरन निज भाल॥हीग्रहपुण्यजिनेश्वरायनम अध्य।७८४ । ३ श्रावक या मुनिराज हो, धर्म आपसे होय । धर्मराज शुभ नीति करि, उन्मार्गनको खोय॥ ह्रीमहं धमराजाय नम अध्यं ७८५ अष्ट है स्वयं स्व प्रातम रस लहो, ताही कहिये भोग । पूज अन्य कुपरिणतित्यागियो,न पदांबुजयोग ॥ॐ ह्रींमहं भोगराजायनमःप्रय।७८६ ॥ nmmmmmmmmmmmmmun

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