Book Title: Siddhachakra Vidhan
Author(s): Santlal Pandit
Publisher: Veer Pustak Bhandar Jaipur
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सिद्ध
बि०
३६२
सब इन्द्री मन जीतिके, करि दीनो तुम व्यर्थ ।
स्वयं ज्ञान इन्द्री जग्यौ, नमूं सदा शिव अर्थ ॥ ॐ ही श्रीँ विरूपाक्षाय नम म्रुघ्र्घ्यं।७४५। - सुन्वरुरूप मनोज्ञ है, मुनिजन मन वशकार ।
असाधारण शुभ रंगु लगे, केवलज्ञान मझार॥ह्रीग्रर्ह कामदेवाय नमःप्रयं । ७४६॥ सम्यग्दर्शन ज्ञान अरु, चारित एक सरूप ।
धर्म मार्ग दरशात है, लोकत रूप अनूप ॥ॐ ह्रीं ग्रहं त्रिलोचनाय नम प्रर्घ्यं ।७४७ निजानन्द स्व लक्ष्मी, ताके हो भरतार |
शिवकामिनि नितभोगते, परमरूप सुखकार। हींग्रहं उमापतये नम श्रध्यं । ७४८ जे श्रज्ञानी जीव है, तिन प्रति बोध करान ।
रक्षक हो षट् कायके, तुम सम कौन महान ॥ॐ ही अहं पशुपतये नमः प्रर्घ्यं ।। ७४ ।। रमण भाव निज शक्तिसो, धरै तथा दुति काम ।
अष्टम
कामदेव तुम नाम है, महाशक्ति बल धाम ॥ॐ ह्रीं श्रीं शम्बरारये नम अध्यं । ७५० कामदाहको दम कियो, ज्यो अंगनी जलधार । निजातमाचरणनित, महाशीलश्रियसार॥ ह्रीप्र त्रिपुरान्तकाय नम' श्रध्यं । ३६२
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