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१ चमरनि करि भक्ति करै, देव चार परकार। । यह विभूति तुम ही विष, बंदूं पाप निवार ॥ॐ ह्रीप्रईचतु षष्टीचामरायनम'प्रयं ।
। देव दुदुभी शब्द करि, सदा करै जयकार। मिद्ध तथा प्राप परसिद्ध हो, ढोल शब्द उनहार॥ह्रोग्रहंदेवदु दुभिय नम प्रय।।२९१।। कि तुम वाणी सब मनन कर, समझत है इकसार।
अक्षरार्थ नहीं भूम पड़े, संशय मोह निवार॥ॐ ह्रीअहंवाङ् स्पष्टायनम भय॑ ।।२६२॥ धनपति रचि तुम प्रासनं, महाप्रभूता जान। तथा स्वासन पाइयो, अचल रहो शिवथान ॥ॐ ह्रोहलब्धासनायनमःअध्य। २६॥ तीन लोकके नाथ हो, तीन छत्र विख्यात। भव्यजीव तुम छाहमें,सदा स्व प्रानंद पात ॥ ह्री ग्रहं छत्रत्रयाय नम अध्य।।२६४।। पुष्पवृष्टि सुर करत है, तीनो काल मझार । तुमसुगंधदशदिशरमी, भविजनभूमर निहार ॥ ह्रीग्रहपुष्पवृष्टयेनम अयं ।२९५। पूजा देव रचित आशोक है, वृक्ष महा रमणीक ।
३ २९७ समोसरण शोभा प्रभु, शोक निवारण ठीक ॥ ह्रींप्रहं दिव्याशोकायनम.प्रय।२९६ ॥
प्रष्टम