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धर्म तीर्थ मुनिराज है, तिनके हो तुम स्वामि ।
धर्मनाथ तुम जानके, नितप्रति करूं प्रणाम। ह्रींअहंतीर्थेशायनम'मध्यं ।३०४. । ई लोक तीर्थ में गिनत हैं, धर्मतीर्थ परधान । सिद्ध सो तम राजत हो सदा, मै बंदू धरि ध्यान ॥ ह्रीमहंधर्मतीर्थयुतायनम अध्यं ५०५ ... तुम बिन धर्म न हो कभी, ढूढो सकल जहान ।
दश लक्षण स्वधर्मके, तीरथ हो परधान ॥ ह्रींमहधर्मतीर्थयुताय नम अध्यं ।३.६॥ !
धर्म तीर्थ करतार हो, श्रावक या मुनिराज । । दोनोविधि उत्तम कहो, स्वर्ग मोक्षके काज ह्रीमहंधमतीर्थकरायनम अर्घ्य ३०७४ ई तुमसे धर्म चले सदा, तुम्ही धर्मके मूल ।
सुरनर मुनि पूजे सदा, छिदहि कर्मके शूल ॥ ह्रीमहंतीर्थप्रवत्तंकाय नमःअध्यं ३०८।। धर्मनाथ जगमे प्रकट, तारण तरण जिहाज । तीन लोक अधिपति कहो, बंदू सुखके काज ॥ ह्रीमहं तीर्थवेधसेनमःप्रय ।।३०॥ पूजा श्रावक या सुनि धर्मके, हो दिखलावनहार । अन्य लिंग नहीं धर्मके, बुधजन लखो विचार॥ ह्रीमई तीविषायकायनमामध्य
प्रष्टम
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