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स्वर्ग मोक्ष दातार हो, तुम्ही मार्ग सुखदान ।
अन्य कुभेषिनमे नहीं, धर्म यथारथ ज्ञान ह्रीमहंसत्यतीर्थक रायनम.अयं ।३११॥ सिद्ध.
सेवन योग्य सु जक्तमें, तुम्ही तीर्थ हो सार । वि०
॥ॐहीपई तीर्यसेव्याय नम अध्य|३१२॥ भव समुद्र भवसे तिरै, तुम तीर्थ कहाय । हो तारण तिहुँ लोकमें, सेवत हूँ तुम पाय ॥ लीपर्हतीर्थतारकाय नम-प्रयं ॥३१३
सर्व अर्थ परकाश, करि, निर इच्छा तुम बैन । , धर्म सुमार्गप्रवर्तको, तुम राजत हो ऐन ॥ॐ ह्रीमहंमत्यवाक्याधिपाय नम अध्यं ।।१४
धर्म मार्ग परगट करै, सो शासन कहलाय। सो उपदेशक आप हो, तिस सकेत कहाय ॥ ह्रीहंसत्यगासनाय नम अयं ॥३१५।। अतिशय करि सर्वज्ञ हो, ज्ञानावरण विनाश। नेमरूप भविसुनत ही, शिवसुख करत प्रकाश ॥ॐ ह्रीमहंअप्रतिगामनाय नम प्रध्यं० अष्टम कहैं कथञ्चित धर्मको, स्यात् वचन सुखकार । सो प्रमारगतै साधियो, नय निश्चय व्यवहार ॥ ह्रींमहस्पाद्वादिनेनम-मध्य ।।१७
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