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वि.
इन्द्रादिक नित पूजते, भक्ति पूर्व शिर नाय । सिद्ध त्रिभुवन नाथ कहातहो, हम पूजत नित पॉय॥ ह्रींप्रर्हत्रिभुवननाथाय नम अर्घ्य ।
।यह दोहा व प्रघं मूलप्रति में नहीं है। ३१६ १ अहमिन्द्रके नाथ हो, तुमहि नमू धरि माथ ॥ॐ ह्रीप्रहं महानाथायनम अर्घ्य ।३६६ १ भिन्न भिन्न देख्यो सकल, लोकालोक अनन्त ।
तम सम दृष्टि न औरकी, तुमै नमें नित सत॥ॐ ह्री अहं परदृष्टे नम अध्यं ३६७।
सब जगके भरतार हो, मुनिगणमें परधान । । तुमको पूजै भावसो, होत सदा कल्याण ॥ॐ ह्रींसह जगत्पतये नम अध्य १३६८। ६ श्रावक या मुनिराज हो, तुम आज्ञा शिर धार । ६ वरतें धर्म पुरुषार्थ में, पूजत हूँ सुखकार ॥ॐ ह्रीमह स्वामिने नम प्रय॑ ॥३६६।।
धर्म कार्य करता सही, हो ब्रह्मा परमार्थ। ६ मालिक हो तिहुँ लोकके, पूजनीक सत्यार्थ ॥ॐ ह्री प्रहं कत्रे नम अध्य ॥४.०॥ पूजा तीन लोकके नाथ हो, शरणागत प्रतिपाल ।
३१२ चार संघके अधिपती, पूजूहूँ नमि भाल ॥ ह्रीअर्हचतुर्विधसघाधिपतये नम अध्य।
अष्टम