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इन्द्रादिक पद हूँ अनवस्थित, दीखत अन्तर रुचि न करै है। मि केवल एकहि स्वच्छ अखण्डित, अक्षयपदकी चाह धरै है। वि० ताते अक्षतसों अनुरागी, हूँ सो तुम पद पूज करामी। द्वादश अधिक पंचशत संख्यक, नाम उचारत हूँ सुखधामी ॥३॥
ॐ ह्री श्रीसिद्धपरमेष्ठिने ५१२ गुण सयुक्ताय धी समत्तणाणदसण वीर्य सुहमत्तहेव अवगहण अगुरुलघुमव्वावाह अक्षयपदप्राप्तये प्रक्षत नि० । पुष्प वारण ही सो मन्मथ जग, विजई जगमें नाम धरावै। देखहु अद्भुत रीति भक्तकी, तिस ही भेट धर काम हनावे ॥ शरणागतकी चूक न देखी, तातै पूज्य भये शिरनामी।। द्वादश अधिक पचशत संख्यक, नाम उचारत हूँ सुखधामी ॥४॥
ॐ ह्री श्रीसिद्धपरमेष्ठिने ५१२ गुण सयुक्ताय श्री समत्तणाणदसण वीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहरण अगुरुल घुमव्वावाह कामवाणविनाशनाय पुष्प नि०। हनन असाता पीर नहीं यह, भीर परै चरु भेटन लायो। । भक्त अभिमान मेट हो स्वामी, यह भव कारण भाव सतायो॥ ई मम उद्यम करि कहा आप ही, सो एकाकी अर्थ लहामी।
सप्तमी पूजा
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