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सिद्ध वि०
१६.
त्रोटक छन्द। विनकारण ही सबके मितु हो, सर्वोत्तम लोकवि हितु हो। इनहीं गुरगमें मन पागत हैं, शिववास करो शरणागत है ॥१५॥
ॐ ह्री लोकोत्तमशरणाय नम अयं । तुम रूप अनुपम ध्यान किये, निज रूप दिखावत स्वच्छ हिये। इनहीं गुरणमै मन पागत है, शिववास करो शरणागत है॥१६०॥
ॐ ह्री सिद्धस्वरूपशरणाय नमः अयं । निरभेद अछेद विकासित है, सब लोक अलोक विभासित है। इनहीं गुरणमें मन पागत है, शिववास करो शरणागत है ॥१६१॥
ह्री सिद्धदर्शनशरणाय नम अयं । निरबाध अगाध प्रकाशमई, निरद्वन्द अबंध अभय अजई । इनहीं गुणमें मन पागत है, शिववास करो शरणागत है ॥१६२॥
ॐ ह्री सिद्धज्ञानशरणाय नमः प्रध्यं । हित कारण तारण तरण कहै, अप्रमाद प्रमाद प्रकाशन है। इनहीं गुरणमे मन पागत है, शिववास करो शरणागत है ॥१६३॥
ॐ ह्री सिद्धवीर्यशरणाय नम मध्य ।
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पप्तमी पूजा
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