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कामीनीमोहन छन्द । मिद्ध एक ही भाव सामान्यका पावना, जीवको जातिका भेद सोगावना । वि० होत जो थावरा एक इन्द्री कहो, पूज हूँ सिद्धके चरण ताको दहो॥ १०६
*ह्री एक-इन्द्रिय जातिरहिताय नम अध्यं ॥५६॥ फर्सके साथमे जीभ जो आमिलें, पायसो आपने आप भूपर चलें। गामिनी कर्म सो दोय इन्द्री कहो, पूजहूँ सिद्धके चरण ताको दहो।
ॐ ह्री द्वि-इन्द्रिय-जातिरहिताय नम अध्यं ॥६॥ नाक हो और दो प्रादिके जोड़ मे, हो उदय चालना योगसों दोल में। गामिनी कर्म सो तीन इन्द्री कहों, पूजह सिद्धके चरण ताको दहो।
ह्री श्रीन्द्रिय-जातिरहिताय नम अध्यं ॥६१॥ प्रांख हो नाक हो जीभ हो फर्श हो, कानके शब्दका ज्ञान जामे न हो। गामिनी कर्मसो चार इन्द्री कहो, पूजहूँ सिद्धके चरण ताको दहो ॥६२॥ षष्ठम * ही चतुरिन्द्रियजातिरहिताय नम अयं ।
पूजा कान भी प्रामिलै जीवजा जाति में, हो असंज्ञी सुसंज्ञी दो भांति में। १०६ । गामीनी कर्मको पंच इन्द्री कहों, पूजहुँ सिद्धकेचरण ताको दहो ॥६३॥