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श्राद्ध-विधि प्रकरणगुण रागी-गुणवान का ही पक्ष करने वाला । १३ सत्कथा-सत्यवादी अथवा धर्म सम्बन्धी ही कथा वार्ताओं को प्रिय मानने वाला। १४ सुपक्ष युक्त-न्यायका ही पक्षपाती अथवा सुशील, अनुकूल सभ्य समुदायवान् (सुपरिवार युक्त ) १५ सुदीर्घदी - सर्वकार्य में लम्बाविचार कर के लाभ समझ ने वाला । १६ विशेषज्ञ तत्व के अभिप्राय को जानने वाला अर्थात् गुण और दोष का भेद समझने वाला । १७ वृद्धानुगो-वृद्ध संप्रदाय के अनुसार प्रवृत्ति करने वाला ( आचार्य वृद्ध, ज्ञान वृद्ध, वयोवृद्ध, इन तीनों वृद्धोंकी शैलीसे प्रवृत्ति करने वाला) १८ विनीत-गुणी जन का बहुमान करने वाला। १६ कृतज्ञ-किये हुये उपकार को न भूलने वाला २० परहितार्थकारी-निःस्वार्थ हो परका हित करने वाला । २१ लब्ध लक्ष-धर्मादि कृत्यों में पूर्ण अभ्यास करने वाले पुरुषों के साथ परिचय रखने वाला, याने सर्व कार्यों में सावधान हो। ___ इस प्रकार अन्य ग्रन्थोंमें इक्कीस गुणोंका वर्णन किया है। इन पूर्वोक्त गुणों को संपादन करने वला मनुष्य धर्म रत्न के योग्य होता है, । इस ग्रन्थ के कर्ताने सिर्फ चारही गुणों का वर्णन किया इसका कारण यह है कि इन चार मुख्य गुणों में पूर्वोक्त इक्कीस गुणों का समावेश हो जाता है । इस ग्रन्थ में उल्लेखित चार मुख्य गुणों में इक्कीस गुणोंका समावेश इस प्रकार होता है-प्रथम के भद्रक प्रकृति गुणमें १ अतुच्छत्व, २ प्रकृति सौम्य, ३ आक्रूरत्व, ४ सदाक्षिणत्व, ५ मध्यस्थ-सोम दृष्टित्व, ६ वृद्धानुगत्व, ७ विनीतत्व ८ दयालुत्व । ऐसे आठ गुण समाविष्ट हो जाते हैं । निपुण मति गुणमें १ रूपवंतत्व, १० सुदीर्घ दर्शित्व, ११ विशेषज्ञत्व १२ कृत. शत्व, १३ परहितार्थ कृतत्व, १४ लब्ध लक्षत्व, इन छः गुणोंका समावेश हो जाता है। न्यायमार्गरति गुणमें १५ भीरुत्व, १६ अशठत्व १७ लजालुत्व, १८ गुणरागीत्व १६ सत्कथात्व, इन पांच गुणोंका समावेश होता है
और चौथे दृढ़ निजववनस्थिति गुण में शेष रहे २० लोक प्रियत्व तथा सुपक्ष युक्तत्व, ये दोनों गुण समाजाते हैं। इस प्रकार मुख्य चार गुणों में ही पूर्वोक्त गुणोंका समावेश हो जा सकनेके कारण ग्रन्थ कर्ताने यहां पर चार ही गुणोंका उल्लेख किया है और इन चार गुणोंका धारण करने वाला मनुष्य धर्म कर्मके योग्य हो सकता है । इन चारों गुणों में भी अनुक्रम से तीन गुण रहित मनुष्य हठ वादी, मूर्ख एवं अन्यायी होता है, अतः वह धर्म के योग्य नहीं होता। चतुर्थ दृढ़ प्रतिज्ञा गुण रहित मनुष्य धर्म को अंगीकार तो अवश्य करे परन्तु प्रथिल बना हुआ और सुवेष वानर जैसे मोतियों की माला अधिक समय तक न धारण कर सके पैसे वह थोड़े हो समय बाद धर्म भ्रष्ट हो जाता है जैसे श्रेष्ठ भीत पर सुन्दर चित्र और मजबूत घड़े हुए गहने में जड़े हुये सुन्दर कीमती रत्न-हीरा जवाहिर सुशोभित रूप में अधिक समय तक ठहर सकता है, वैसे ही दूढ़ प्रतिज्ञ गुण युक्त पुरुषमें ही सम्यक्त्र दर्शनादि धर्म यावजीव पर्यन्त टिक सकता है।
इस कथन से यह सिद्ध होता है कि पूर्वोक्त चार गुण युक्त ही मनुष्य श्रावक धर्म के योग्य हो सकता है सम्यग् दर्शनादि श्रावक धर्म चुल्लकादि दस दृष्टान्तों द्वारा दुर्लभ होने पर भी गुर्वादिक के योग से प्राप्त किया जा सकता है। परन्तु उस धर्मका आजीवन निर्वाह तो शुकराजा ने जैसा पूर्वभव में किया था वैसा करना अत्यंत आवश्यक होने से उनका समूल वृत्तान्त यहां पर संक्षेप से दिया जाता है।
धान्यकी एक सम्पदाके समान दक्षिणाई भरतक्षेत्र में पूर्वकाल में क्षितिप्रतिष्ठित नामक एक प्रसिद्ध नगर