Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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प्रस्तावना
तैजस और कार्मण इन दोनों शरीरोंकी अयोगकेक्लीके परिशातन कृति होती है, कारण कि उनके योगोंका अभाव हो जानेसे बन्धका भी अभाव हो चुका है । अयोगकेवलीको छोड़ शेष सभी संसारी जीवोंके इन दोनों शरीरोंकी एक संघातन-परिशातनकृति ही है, क्योंकि, सर्वत्र उनके पुद्गलस्कन्धोंका आगमन और निर्जरी दोनों ही पाये जाते हैं । उक्त दोनों शरीरोंकीसंघातनकृति सम्भव नहीं है। कारण इसका यह है कि वह संसारी प्राणियोंके तो हो नहीं सकती, क्योंकि, उनके उक्त दोनों शरीरोंके पुद्गलस्कन्धोंका जैसे आगमन होता है वैसे ही उसीके साथ निर्जरा भी होती है । अब रहे सिद्ध जीव सो उनके भी वह सम्भव नहीं है, क्योंकि, उनके बन्धकारणोंका पूर्णतया अभाव हो चुका है।
आगे जाकर उपर्युक्त पांचों मूलकरणकृतियों की प्ररूपणा पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व, इन तीन अधिकारों द्वारा तथा सत्-संख्या आदि आठ अनुयोगद्वारों के भी द्वारा विस्तारपूर्वक की गई है।
असि, वासि, परशु, कुदारी, चक्र, दण्ड, वेम व नालिका आदि उत्तर करण अनेक मोन जाते हैं । अत एव उत्तर करणों के अनेक होनेसे उनकी कृति रूप उत्तरकरणकृति भी अनेक प्रकार कही गई है।
७ कृतिप्राभृतका जानकार उपयोग युक्त जीव भावकृति कहा जाता है । उपर्युक्त सातों कृतियोंमें यहां गणनकृतिको प्रकृत बतलाया है, कारण कि गणनाके विना अन्य अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा असम्भव हो जाती है ।
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