Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 12
________________ विषय-परिचय ४ गणनकृति नोकृति, अवक्तव्यकृति और कृतिके भेदसे तीन भेद रूप अथवा कृतिगत संख्यात, असंख्यात व अनन्त भेदोसे अनेक प्रकार भी है । इनमेंसे 'एक' संख्या नोकृति, • दो ' संख्या अवक्तव्यकृति और तीन ' को आदि लेकर संख्यात असंख्यात व अनन्त तक संख्या कृति कहलाती है । संकलना, वर्ग, वर्गावर्ग, धन व धनाधन राशियों की उत्पत्तिमें निमित्तभूत गुणकार, कलासवर्ण तक भेदप्रकीर्णक जातियां, त्रैराशिक व पंचराशिक इत्यादि सब धनगणित है । व्युत्कलना व भागहार आदि ऋणगणित कहलाते हैं । गतिनिवृत्तिगणित और कुट्टिकार आदि धन-ऋणगणितके अन्तर्गत हैं। यहां कृति, नोकृति और अवक्तव्यकृतिके उदाहरणार्थ ओघानुगम, प्रथमानुगम, चरमानुगम और संचयानुगम, ये चार अनुयोगद्वार कहे गये हैं। इनमें संचयानुगमकी प्ररूपणा सत्-संख्या आदि आठ अनुयोगद्वारों के द्वारा विस्तारपूर्वक की गई है। ५ लोक, वेद अथवा समयमें शब्दसन्दर्भ रूप अक्षरकाव्यादिकोंके द्वारा जो ग्रन्थरचना की जाती है वह ग्रन्थकृति कहलाती है। इसके नाम, स्थापना, द्रव्य व भावके भेदसे चार भेद करके उनकी पृथक् पृथक् प्ररूपणा की गई है । ६ करणकृति मूलकरणकृति और उत्तरकरणकृतिके भेदसे दो प्रकार है । इनमें औदारिकादि शरीर रूप मूल करणके पांच भेद होनेसे उसकी कृति रूप म्हकरणकृति भी पांच प्रकार निर्दिष्ट की गई है । औदारिकशरीरमूलकरणकृति, वैक्रियिकशरीरमूलकरणकृति और आहारकशरीरमूलकरणकृति, इनमेंसे प्रत्येक संघातन, परिशातन और संघातन-परिशातन स्वरूपसे तीन तीन प्रकार हैं। किन्तु तैजस और कार्मणशरीरमूलकरणकृतिमें से प्रत्येक संघातनसे रहित शेष दो भेद रूप ही हैं । विवक्षित शरीरके परमाणुओंका निर्जराके विना जो एक मात्र संचय होता है वह संघातनकृति है । यह यथासम्भव देव व मनुष्यादिकोंके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें होती है, क्योंकि, उस समय विवक्षित शरीरके पुद्गलस्कन्धोंका केवल आगमन ही होता है, निर्जरा नहीं होती। विवक्षित शरीर सम्बन्धी पुद्गलस्कन्धोंकी आगमनपूर्वक होनेवाली निर्जरा संघातन-परिशातनकृति कहलाती है । वह यथासम्भव देव-मनुष्यादिकोंके उत्पन्न होनेके द्वितीयादिक समयोंमें होती है, क्योंकि, उस समय अभव्य राशिसे अनन्तगुणे और सिद्ध राशिसे अनन्तगुणे हीन औदारिकादि शरीर रूप पुद्गलस्कन्धोंका आगमन और निर्जरा दोनों ही पाये जाते हैं। उक्त विवक्षित शरीरके पुद्गलस्कन्धों की संचयके विना होनेवाली एक मात्र निर्जराका नाम परिशातनकृति है । यह यथासम्भव देव-मनुष्यादिकोंके उत्तर शरीरके उत्पन्न करनेपर होती है, क्योंकि, उस समय उक्त शरीरके पुद्गलस्कन्धोंका आगमन नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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