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आप्त-सर्वज्ञ व वीतराग–के द्वारा प्रणीत हो तथा जो प्रत्यक्ष व अनुमानादि प्रमाण से अविरुद्ध होने के कारण वस्तुस्वरूप का यथार्थ प्ररूपक हो उसे ही यथार्थ आगम जानना चाहिए। ऐसा आगम ही प्राणियों को कुमार्ग से बचाकर उन सबका हित कर सकता है।' षटखण्डागम की यथार्थता
ऐसे यथार्थ माने जाने वाले आगमों में प्रस्तुत षट्खण्डागम अन्यतम है। कारण यह कि उसका महावीर-वाणी से सीधा सम्बन्ध रहा है। उसे दिखलाते हुए धवलाकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि इस प्रकार से यह षट्खण्डागम केवलज्ञान के प्रभाव से प्रमाणीभूत आचार्यपरम्परा से अविश्रान्त चला आया है और इसीलिए वह प्रत्यक्ष एवं अनुमानादि प्रमाणं से अविरुद्ध होने के कारण प्रमाणीभूत है। इस कारण मोक्षाभिलाषी भव्य जनों को उसका अभ्यास करना चाहिए।' सिद्धों के पूर्व अरहन्तों को नमस्कार क्यों ?
धवला में पंचपरमेष्ठिनमस्कारात्मक मंगलगाथा की व्याख्या के प्रसंग में यह एक शंका उठायी गई है कि समस्त कर्मलेप से रहित सिद्धों के रहने पर सलेप-चार अघातिया कर्मों के लेप से सहित-अरहन्तों को प्रथमत: नमस्कार क्यों किया जाता है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि सिद्ध , जो गुणों से अधिक हैं, उनकी उस गुणाधिकता विषयक श्रद्धा के कारण वे अरहन्त ही तो हैं, इसीलिए उन्हें सिद्धों के पूर्व नमस्कार किया जा रहा है। अथवा यदि अरहन्त न होते तो हम जैसे छद्मस्थ जनों को आप्त, आगम और पदार्थों का बोध ही नहीं हो सकता था। यह महान् उपकार उन अरहन्तों का ही तो है। इसीलिए उन्हें आदि में नमस्कार किया जाता है।
इससे निश्चित है कि अरहन्त (आप्त) व उनके द्वारा प्ररूपित आगम ही एक ऐसा साधन है जिससे प्राप्त तत्त्वज्ञान के बल पर जीव सिद्धि को प्राप्त कर सकता है।
आगम को महत्त्व देते हुए आ० गुणभद्र ने भी 'आत्मानुशासन' में यही अभिप्राय प्रकट किया है कि सभी प्राणी जिस समीचीन सुख को चाहते हैं, वह यथार्थ सुख कर्मों के क्षय से प्रादुर्भूत होता है । यह कर्मक्षय व्रत-संयम से सम्भव है जो सम्यग्ज्ञान पर निर्भर है। उस सम्यग्ज्ञान का कारण वह आगम है जो वीतराग सर्वज्ञ के द्वारा कहा गया हो। इस प्रकार यथार्थ (निर्बाध) सुख का साधन वह आप्त और उसके द्वारा प्रणीत आगम ही है। अत: युक्ति से विचार कर मुमुक्षु भव्य को उसी का आश्रय लेना चाहिए। ___ इसी 'आत्मानुशासन' में आगे मन को उपद्रवी चपल बन्दर के समान बतलाते हुए यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि जिस प्रकार बन्दर फल पुष्पादि से व्याप्त किसी हरे-भरे वृक्ष
१. रत्नकरण्डक ६ २. धवला पु० ६, पृ० १३३-३४ ३. धवला पु० १, पृ० ५३-५४ ४. आत्मानुशासन ६ (विपरीत क्रम से इसी अभिप्राय का प्ररूपक एक पद्य 'तत्त्वार्थश्लोक
वार्तिक' में भी उद्धृत किया गया है।)
२४ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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