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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
श्री वाचस्पति मिश्रने सांख्यतत्त्व-कौमुदी में ईश्वरवादीयों का मत बताते हुए कहा है कि, (सांख्य की मान्यताओं का प्रतिकार करते हुए कहते है कि,) अचेतन - अज्ञ प्रकृति विचित्र जगत का सर्जन नहीं कर सकती । तदुपरांत, वह देहस्थ जीवात्मायें प्रकृति के प्रेरक बनकर जगत का सर्जन नहीं कर सकते है । क्योंकि, वे प्रकृति के स्वरूप से अज्ञात है । इसलिए सर्वदर्शी नित्य ईश्वर ही प्रकृति के सृष्टिकार्य का प्रेरक बन सकता है । ईश्वरवादी की इस आपित्त के उत्तर में श्री वाचस्पति मिश्र बताते हैं कि, वत्सपोषण के लिए गाय के स्तन में से जैसे अज्ञ दुध स्रवित होता है उसी तरह से पुरुष के भोग और मोक्ष के लिए अज्ञ प्रकृति सृष्टि में प्रवृत्त होती है । ईश्वर को यदि प्रकृति का प्रेरक माने तो प्रश्न उपस्थित होगा कि, सृष्टि कार्य में उसकी प्रेरणारूप प्रवृत्ति का प्रयोजन कया है ? जगत में स्पष्ट दिखता है कि, बुद्धिमान लोग स्वार्थ से या करुणा से प्रेरित होकर प्रवृत्ति करते हैं । परन्तु ईश्वर को तो कोई स्वार्थ हो नहीं सकता । क्योंकि वह तो पूर्ण हैं। ईश्वर करुणा से प्रेरित होकर प्रवृत्ति करते है ऐसा भी माना नहीं जा सकता, क्योंकि सृष्टि से पहले दुःख होता ही नहीं है अर्थात् सृष्टि के पहले देह, इन्द्रियाँ और दुःखदायक वस्तुओं की उत्पत्ति हुई ही नहीं होती है । इसलिए सृष्टि से पूर्व करुणा ही संभवित नहीं है । सृष्टि के बाद दुःख देखकर ईश्वर को करुणा आती है ऐसा भी नहीं कह सकते । क्योंकि इतरेतराश्रय दोष आता है। करुणावशात् सृष्टि और सृष्टिजन्य दुःख देखकर करुणा । इस तरह से इतरेतराश्रय दोष आता है ।
तदुपरांत, दूसरा प्रश्न भी खडा होता है कि, करुणावशात् ईश्वर की सृष्टि सर्जन में प्रवृत्ति हो तो वह सभी प्राणीओं को सुखी ही क्यों न करे ? यहाँ यदि ऐसा कहा जाये कि, जीवो के धर्माधर्मरूप विचित्र कर्मों के कारण एक सुखी और एक दुःखी इस तरह से सृष्टिसर्जन में विचित्रता आती है । तो यहाँ सोचने जैसी एक बात है कि, विचित्र कर्मो से ही विचित्र सृष्टि का सर्जन होता हो तो कर्मो के अधिष्ठाता रुप में ईश्वर को स्वीकार करने की आवश्यकता ही क्या है ? कर्म स्वयं अपना फल देते हैं । (सांख्यमत अनुसार) प्रकृति अज्ञ है । वह स्वार्थ से या करुणा से सृष्टिसर्जन नहीं करती है । वह स्वयं महत् इत्यादि रुप से परिणमन पाती हैं । इसलिए जगत का उपादान कारण प्रकृति हैं । निमित्तकारण जीवो के धर्माधर्मरूप कर्म है । इसलिए सृष्टि के व्यापार में ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं है । श्री वाचस्पति मिश्र इस प्रकार से कौमुदी में सृष्टिकार्य में ईश्वर की भूमिका का खंडन करते हैं ।।८७)
सांख्यसूत्रकार ईश्वर का प्रतिषेध करते है । क्योंकि, ईश्वर को सिद्ध करनेवाला कोई प्रमाण नहीं है ।८८) सूत्रकार आगे बताते है कि, यदि ईश्वर हो तो वह या तो बद्ध हो अथवा मुक्त हो, तीसरा कोई प्रकार या विकल्प संभवित नहीं है।८९ ईश्वर को बद्ध माना नहीं जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने से ईश्वर साधारण जीव जैसा हो जायेगा और उससे उसमें विचित्ररचनावाला जगत उत्पन्न करने का सामर्थ्य न रहेगा । ईश्वर को मुक्त मानने से उसमें अभिमान उपरांत रागादि का अभाव ही होगा और ऐसा ईश्वर भी जगत का कर्ता नहीं बन सकता ।(९०) सांख्यसूत्रकारने ईश्वर के विरोध में आगे बहोत दलीले दी हैं, परन्तु विस्तार भय से यहाँ रूकते हैं । जिज्ञासु सांख्यसूत्र का अवगाहन करे । तत्त्वमीमांसा :
सांख्यदर्शन मूल दो तत्त्वो को मानता है । प्रकृति और पुरुष । प्रकृति जड है । त्रिगुणात्मक है । सत्त्व, रजस्, तमस् : ये तीन गुणवाली प्रकृति है । प्रकृति अवस्था में तीनो गुण साम्यावस्था में होते हैं । तीनों में विषमता आये तब प्रकृति में से सृष्टि का सर्जन होता है । सत्त्वादि तीनो द्रव्य है । वे गुण प्रकृति के आरंभक या उत्पादक नहीं है, परन्तु स्वभावरूप है । वे गुण क्रमशः सुखात्मक, दुःखात्मक और मोहात्मक है । तदुपरांत, सत्त्व के धर्म प्रकाश 87. सां.त.कौ.का. ५७ । 88. ईश्वरासिद्धेः (सां.सू. १-९२) । 89. मुक्तबद्धयोरन्तराभावान्न तत्सिद्धिः । (सां.सू. १-९३।) ।
90. उभयथाप्यसत्करणत्वम् । (सां.सू. १-९४) ।
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