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सेतुबन्धम्
[प्रथम सेतुबन्धप्रबन्धस्य, व्याख्येयं क्रियते मया ।
बालानां सुखबोधाय, प्रीतिदा विमलाभिधा ॥ चिकीर्षित ग्रन्थ के निर्विघ्न समाप्त्यर्थ स्वाभीष्ट देवता के नमस्कारोपदेश के रूप में ग्रन्थकार का मङ्गलाचरण है
हे सज्जनवृन्द ! उन [ मधुमथन ] विष्णु को नमस्कार करो ( मैं भी उन्हें प्रणाम कर रहा हूँ ), जो अवर्धित होते हुये भी तुङ्ग, अप्रसारित होते हुये भी विस्तृत, अनवनत होते हुये भी गभीर, स्थूल होते हुये भी सूक्ष्म तथा अज्ञात परमार्थ ( तत्त्व ) वाले होते हुये भी प्रकट हैं ।
विमर्श-यहाँ 'विरोधाभास' अलङ्कार है । वे ( मधुमथन ) अवर्धित इसलिये हैं; क्योंकि अजन्मा होने के कारण दूसरों से उनका वर्धन नहीं हुआ है और तुङ्ग इसलिये हैं; क्योंकि त्रैलोक्यव्यापक होने से उनकी ऊर्ध्वदेशव्यापकता स्वतःसिद्ध है। अप्रसारित इसलिये हैं; क्योंकि अजन्मा होने के कारण दूसरों से उनका प्रसारण नहीं हुआ है और विस्तृत इमलिये हैं; क्योंकि उनकी त्रैलोक्यव्यापकता से मध्यदेश व्यापकता स्वतःसिद्ध है। इसी प्रकार अन्य विशेषणों के विषय में भी समझना चाहिये। यहाँ 'स्कन्धक' छन्द है । इसका लक्षण है
'चउमत्ता अट ठगणा पुव्वद्धे उत्तरद्ध होइ सरुआ। सो खन्धआ विआणहु पिङ्गल पभणेइ मुद्धि बहुसंभेआ ॥' [ 'चतुर्मात्रा अष्टगणाः पूर्वार्धे उत्तरार्धे भवन्ति सरूपाः ।
तं स्कन्धकं विजानीत पिङ्गलः प्रभणति मुग्धे बहुसंभेदम् ॥'] इसके पूर्वार्ध में चार-चार मात्रा के आठ गण अर्थात् बत्तीस मात्रायें होती हैं। इसी प्रकार उत्तरार्ध में भी चार-चार मात्रा के आठ गण ( ३२ मात्रायें) होती हैं अर्थात् पूरा छन्द ६४ मात्राओं का होता है ॥१॥ मधुमथनस्य हिरण्यकशिपुविदारणवर्णनेन प्रकृतग्रन्थविघ्न विघातसामर्थ्यमाहदणुएन्दरुहिरलग्गे जस्स फुरन्ते णहप्पहाविच्छड्डे । गुप्पन्ती विवलामा गलिग्न व्व थणंसुए महासुरलच्छी ॥२॥ [दनुजेन्द्ररुधिरलग्ने यस्य स्फुरति नखप्रभाविच्छ । व्याकुला विपलायिता गलित इव स्तनांशुके महासुरलक्ष्मीः॥] यस्य नरसिंहरूपिणो मधुमथनस्य प्रभाया: स्वाभाविक्याः श्वेताया विच्छर्दः समूहो यत्र तथाभूते नखे स्फुरत्युरोविदारणसमये प्रकाशमाने सति महासुरस्य हिरण्यकशिपोः श्रीाकुला सती विपलायिता तस्योपमर्दै विपर्यास प्राप्ता । अप
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