Book Title: Sambodhi 2009 Vol 32
Author(s): J B Shah, K M patel
Publisher: L D Indology Ahmedabad

Previous | Next

Page 83
________________ Vol. XXXII, 2009 अर्जुनरावणीय (रावणार्जुनीय) की टीका व इसके रचयिता 77 उपलब्ध है, अतः सातवें से चौदह सर्ग तक इसकी तुलना व मिलान शिवदेशिकशिष्य-टीका से किया जा सकता है, तथा १९ से २२वें सर्ग तक वासुदेवीय-टीका से भी इसकी तुलना व मिलान किया जा सकता है । अंशतः ऐसा करने पर मुझे विदित हुआ कि यह टीका उक्त दोनों टीकाओं से थोड़े-थोड़े संक्षेप-विस्तार का भी अन्तर है। यह देखकर एक सम्भावना यह भी है कि तीनों खण्ड मूलतः एक ही रचयिता की रचना हों, और वह रचयिता कदाचित् वासुदेव कवि ही हो सकते हैं, जिन्होंने 'वासुदेव-विजयम्' नामक व्याकरणोदाहरणकाव्य की रचना की थी, और जो कालिकट के राजा जमूरिन के सभाकवि थे। रही बात इनमें दिखने वाले उक्त अन्तर की, सो यह सम्भव है कि इन प्रतिलिपियों में प्रतिलिपिकर्ता पण्डितों के कारण थोड़ा-थोड़ा अन्तर आ गया होगा, परन्तु यह सब सम्भावनामात्र है । इस विषय में प्रामाणिक जानकारी के लिए आगे गवेषणा अपेक्षित है। टीका पर काशिका व अन्य ग्रन्थों का प्रभाव टीका के तीनों खण्डों में प्रयोगों के विवरण के प्रसंग में काशिकावृत्ति को पद-पद पर अविकल रूप से उद्धृत किया है । परन्तु काशिका की पङ्क्तियाँ उद्धृत करते हुए तीनों खण्डों में कहीं भी काशिका का नाम नहीं लिया है । टीकाग्रन्थ के बहुत से स्थलों पर हस्तलेखगत अशुद्ध पाठों के शोधन व त्रुटित पाठों की पूर्ति में काशिकावृत्ति बहुत सहायक रही है। काशिकावृत्ति के इस प्रकार के उपयोग की सूचना मैंने यथास्थान पादटिप्पणियों में दी है। प्रथम खण्ड की टीका में काशिका के अतिरिक्त जिन व्याकरण-ग्रन्थों के उद्धरण सर्वाधिक मिलते हैं, उनमें ईस्वीय १२वीं शताब्दी के प्रसिद्ध काश्मीरी वैयाकरण व कवि भट्ट क्षीरस्वामी के 'निपाताव्ययोपसर्गीयम्' तथा लगभग इसी काल के देव नामक विद्वान् द्वारा रचित धातुविषयक ग्रन्थ 'देवम्' हैं । इनके उद्धरण प्रस्तुत ग्रन्थ के परिशष्ट-२ में उद्धरणसूचि के अन्तर्गत अन्य उद्धरणों के साथ संकलित कर दिए हैं । इन उद्धरणों से ज्ञात होता है कि उन दिनों केरल में काशिकावृत्ति के साथ इन दोनों ग्रन्थों का पठन पाठन भी बहुत प्रचलित था । टीकाकार जिस सहज भाव से पद-पद पर इनको उद्धृत करते हैं, उससे लगता है कि ये ग्रन्थ उन्हें स्वभ्यस्त व कण्ठस्थ थे । 'दैवम्' के आठ हस्तलेख केरल विश्वविद्यालय तिरुवननन्तपुरम् के कार्यावट्टम्-परिसर स्थित 'प्राच्यविद्या-शोधसंस्थान एवं हस्तलखितग्रन्थालय' में उपलब्ध हैं । इसका पहला सम्पादन भी त. गणपति शास्त्री ने अनन्तशयन ग्रन्थमाला के प्रथम पुष्प के रूप में तिरुवनन्तपुरम् (केरल) से किया था । हमने दैवम् के उद्धरणों के मूलस्थलनिर्देश के लिए वर्तमान में सुलभ व पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक द्वारा सम्पादित संस्करण का उपयोग किया है। काश्मीरी वैयाकरण कवि भट्ट क्षीरस्वामी के 'निपाताव्ययोपसर्गीयम्' के पठन पाठन का प्रचलन भी केरल में बहुत था । अतः इसके हस्तलेख भी केरल व अन्य दक्षिणी प्रान्तों में उपलब्ध हैं । इसका एक अखण्डित हस्तलेख केरल विश्वविद्यालय तिरुवनन्तपुरम् के कार्यावट्टम्-परिसर स्थित

Loading...

Page Navigation
1 ... 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190