Book Title: Sambodhi 2009 Vol 32
Author(s): J B Shah, K M patel
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 94
________________ 88 विजयपाल शास्त्री SAMBODHI स्वादयन्तु रसं सर्वे यथाकामं कथञ्चन । सर्वस्वं तु रसस्यात्र गुप्तपादा हि जानते ॥ (पृ० ५२) सभी (सहृदय) जैसे भी चाहें, जी भरकर रसास्वादन करें । क्योंकि सहृदय-हृदयगत स्थायी भाव की अभिव्यक्ति को रस माननेवाले आचार्यने रसनिष्पत्ति को सर्वसाधारण तक पहुंचा दिया, अतः रस का सर्वस्व (सार तत्त्व) वे साहित्यिक-शिरोमणि श्रीमदमभिनवगुप्तपादाचार्य ही जानते हैं । इस प्रकार यहाँ सङ्केतकारने रसनिष्पत्ति-विषयक मतों की पद्यबद्ध समीक्षा की है । पञ्चमोल्लास में सङ्केतकार ने ध्वनि और गुणीभूतव्यङ्ग्य की संसृष्टि का स्वरचित उदाहरण दिया है, जिसमें उनके विद्यागुरु का बहुत ही भावपूर्ण व काव्यात्मक वर्णन किया है षट्तर्कीललनाललामनि गते यस्मिन्मुनिस्वामिनि स्वर्गं, वाग्जननी शुचां परवशा कश्मीरमाशिश्रियत् । तत्रापि स्फुरितारतिर्भगवती जाने हिमाद्रिं गता तापं तादृशपुत्ररत्नविरहे सोढुं न शक्ताऽन्यथा ॥ (पृ० १०५) ___षट्तर्की (षड्दर्शनी) रूपी ललना के भूषणभूत जिस मुनि-स्वामी के स्वर्ग सिधार जाने पर माता सरस्वती शोकसन्ताप से सन्तप्त होकर (मानो इस तपन से मुक्ति पाने के लिए ही) शीतल प्रदेश काश्मीर में चली गई, वहाँ भी ताप शान्त न होने पर हिमालय पर चली गई, अन्यथा वह ऐसे पुत्ररत्न के बिछुड़ने से होनेवाले तीव्र सन्ताप को कैसे सह सकती थी ? इस पद्य में अपने विद्यागुरु (जो इनके दीक्षागुरु के गुरु थे, उन) श्री नेमिचन्द्रप्रभु को सरस्वतीपुत्र बताते हुए यह उत्प्रेक्षा की है कि मानो उनके निधनजन्य उत्कट सन्ताप को शान्त करने के लिए ही सरस्वती माँ पहले काश्मीर व फिर हिमालय चली गई । ___उस युग में काश्मीर में ही सर्वाधिक विद्वानों के होने से यह प्रसिद्ध हो गया था कि सरस्वती देवी शेष भारत से रूठ कर काश्मीर (शारदादेश) चली गई । इसी प्रसिद्धि को आधार बनाकर सङ्केतकार ने उक्त उत्प्रेक्षा की है। ___ ग्रन्थ के अन्त में भी- 'षट्तर्कीललनाविलासवसतिः स्फूर्जत्तपोहर्पतिः' इस श्लोक में माणिक्यचन्द्र ने अपने इन्हीं गुरुदेव का वर्णन किया है । जैसा कि ऊपर कह चुके हैं कि'षट्तर्कीललनाललामनि' यह ऊपर उद्धृत श्लोक सङ्केतकारने ध्वनि और गुणीभूतव्यङ्ग्य की संसृष्टि के उदाहरण के रूप में दिया है । यहाँ उन्हीं के शब्दों में ध्वनि व गुणीभूतव्यङ्ग्य की संसृष्टि इस प्रकार है - "अत्र 'ललनाललामनि' इति अविवक्षितवाच्यो ध्वनिः । 'जाने' 'तादृश' इति पदे गुणीभूतव्यङ्गये । 'जाने' इति पदेन उत्प्रेक्ष्यमाणानन्तधर्मव्यञ्जकेनापि वाच्यमेव उत्प्रेक्षणरूपं वाक्यार्थीक्रियते । 'तादृश' इति पदेन असामान्यगुणौघः व्यक्तोऽपि गौणः, स्मृतिरूपस्य वाच्यस्य प्राधान्येन चारुत्वहेतुत्वात् ।" (काव्यप्रकाश-सङ्केतः, पञ्चमोल्लास, कारिका- ४६)

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