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SAMBODHI
विजयपाल शास्त्री भरतेन परित्यक्तोऽस्मीति कोपं वहन्निव ।
शान्तो रसस्तदधिकं भेजे श्रीभरतेश्वरम् ॥२॥ नाट्यशास्त्रकार भरतमुनिने मुझे छोड़ दिया, मानो इसी कारण कुपित हुए शान्त रसने श्री भरतेश्वर को अत्यधिक रूप से सेवित किया, अर्थात् वे अतीव शमप्रधान विरक्त मुनि थे । काव्य में तो ९ रस होते हैं, परन्तु-'अष्टौ नाट्ये रसाः स्मृताः'११ के अनुसार नाट्य में शृङ्गारादि आठ रस ही होते हैं, नवाँ शान्त रस नहीं होता है, इस मन्तव्य को आधार बनाकर सङ्केतकारने यह उत्प्रेक्षा की है।
पदं तदन्वलञ्चक्रे वेरस्वामिमुनीश्वरः ।
अनुप्रद्योतनोद्योतं दिवमिन्दुमरीचिवत् ॥३॥ तदनन्तर वेरस्वामी (वीरस्वामी)ने उनके पट्ट को वैसे ही अलकृत किया जैसे प्रद्योतन (सूर्य) के उद्योतन (प्रकाश) के बाद आकाश को चन्द्रकिरणें अलङ्कृत करती हैं ।
वाञ्छन् सिद्धवर्धू हसन् सितरुचिं कान्त्या रतिं रोदयन् पञ्चेषोर्मथनाद् दहन् भववनं कामन् कषायद्विषः । त्रस्यन् रागमलाद् घनाघनशकृद्भस्त्रास्त्यजन् योषितः
बिभ्राणः शममद्भुतं नवरसी यस्तुल्यमस्फोरयत् ॥४॥ सिद्धि रूपी वधू को चाहते हुए, सितरुचि (चन्द्रमा) का उपहास करते हुए, काम का विनाश करने से रति को रुलाते हुए, भववन (जन्म-मरण रूप वन) का दहन करते हुए, कषाय रूपी शत्रुओं को लांघते हुए (परास्त करते हुए), रागमल से भयभीत होते हुए, स्त्रियों को भारी भरकम पुरीष (मल)की भस्त्रा (बोरी) के समान परित्याग करते हुए अद्भुत शमभाव को धारण करते हुए जिसने नौ रसों को समान रूप से प्रकट किया था ।
षट्तर्कीललनाविलासवसतिः स्फूर्जत्तपोऽहर्पतिः तत्पट्टोदयचन्द्रमाः समजनि श्रीनेमिचन्द्रप्रभुः । निस्सामान्यगुणैः भुवि प्रसृमरैः प्रालेयशैलोज्ज्वलैः
यश्चक्रे कणभोजिनो मुनिपतेर्व्यर्थं मतं सर्वतः ॥५॥ उन (भरतेश्वर) के पट्ट के उदयचन्द्र रूप श्रीनेमिचन्द्र प्रभु उत्तराधिकारी हुए, जो षट्तर्की रूपी ललना के विलास का निवास हैं, तप के उल्लसित होते हुए सूर्य हैं, तथा जिन्होंने अपने भूमि पर फैलनेवाले-हिमालय के समान धवल (उज्ज्वल) असाधारण गुणों से कणभोजी (कणाद) मुनि के मत को सर्वतः व्यर्थ कर दिया था ।
यत्र प्रातिभशालिनामपि नृणां सञ्चारमातन्वतां सन्देहैः प्रतिभाकिरीटपटली सद्यः समुत्तार्यते । । नीरन्धं विषमप्रमेयविटपिवातावकीर्णे सदा तस्मिंस्तर्कपथे यथेष्टगमना जज्ञे यदीया मतिः ॥६॥