________________
123
Vol. XXXII, 2009 जैन दार्शनिक साहित्य में ज्ञान और प्रमाण के समन्वय का प्रश्न जो जैन मतानुसार परोक्ष है, उसमें अनुमान और उपमान को समाहित कर लेना अधिक समीचीन है। ऐसा करने से पाँच ज्ञान और चार प्रमाणों का समन्वय हो जाता है। परन्तु अनुयोगद्वार के रचयिता यहाँ एक कदम पीछे रहे हैं। नन्दीकार ने उसका सङ्केत तो दे दिया है, परन्तु वह इतना स्पष्ट नहीं है। मतिज्ञान को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दोनों में गिनाया है। वस्तुतः इन्द्रियजन्यमतिज्ञान को प्रत्यक्ष में और मानसमतिज्ञान को परोक्ष में गिना जाय तो विवाद ही समाप्त हो जाये । वास्तव में अनुमान आदि मानसज्ञान परोक्ष ही हैं, परन्तु इन्द्रियजन्यमतिज्ञान को प्रत्यक्ष कहना तो लौकिक मान्यता का अनुसरण ही है। प्रमाण और पञ्चविध ज्ञान का समन्वय
जैनदृष्टि से प्रमाण और पाँच ज्ञानों की अवधारणा में स्पष्ट समन्वय करने का प्रयत्न उमास्वाति ने किया है । ज्ञान के मति, श्रुत आदि पाँच भेद बताकर तार्किक पद्धति की दृष्टि से उन्होंने प्रथम दो ज्ञानों को परोक्ष और शेष तीन को प्रत्यक्ष कहा है । यद्यपि उन्होंने अपने तत्त्वार्थभाष्य में 'चतुर्थविधमित्यके' कहकर चार प्रमाणों का अभिमत दिया है । परन्तु जिस प्रकार पाँच ज्ञान को परोक्ष एवं प्रत्यक्ष–इन दो प्रमाण-भेदों में सूत्र द्वारा माना गया है, उसी प्रकार इन पाँच ज्ञान को प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगमइन चार प्रमाणों में नहीं माना गया है। भाष्य में भी इसका उल्लेख नहीं है। इसका कारण यह हो सकता है कि प्रमाण के दो भेदों की प्रथम प्रकार की तार्किक पद्धति ही जैन दर्शन को विशेष अनुकूल है। चार प्रमाणों की दूसरी तार्किक पद्धति आगम में निर्दिष्ट होने पर भी मूलतः यह दूसरे दर्शनों की है । तत्त्वार्थसूत्र की तरह आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार के प्रथम प्रकरण में मति और श्रुत को परोक्ष तथा अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष रूप में वर्णित किया है। ____ इस प्रकार आगमिक और तार्किक पद्धति के द्विविध प्रमाण का समन्वय हुआ है, परन्तु चतुर्विध वर्गीकरण का दूसरा प्रश्न अनुत्तरित ही रहता है। जैनेतर दार्शनिक विद्वान् इन्द्रियजन्य मतिज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं, जबकि जैन विद्वान् मति एवं श्रुत दोनों को परोक्ष कहते हैं। इसका पूर्णतः समाधान न तो उमास्वाति और कुन्दकुन्द ने किया और न नन्दीसूत्रकार और अनुयोगद्वार-सूत्रकार ने ही किया। इस बात का स्पष्ट निराकरण परवर्ती श्वेताम्बर आचार्यों में सर्वप्रथम जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण और दिगम्बर आचार्यों में भट्टारक अकलङ्क ने किया है । क्षमाश्रमण ने अपने विशेषावश्यक में उक्त प्रश्न का निराकरण करते हुए कहा है कि इन्द्रियजन्य मतिज्ञान, जो प्रत्यक्ष कहा गया है, उसे सांव्यावहारिक-प्रत्यक्ष समझना चाहिए । भट्टारक अकलङ्क ने अपनी लघीयस्त्रयी में स्पष्टतः उल्लेख किया है कि प्रत्यक्ष के मुख्य और सांव्यावहारिक-ऐसे दो भेद हैं। उसमें अवधि आदि तीन ज्ञान को मुख्य प्रत्यक्ष और इन्द्रियजन्य मतिज्ञान को सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष समझना चाहिए। दोनों के कथन का स्पष्ट आशय यही है कि जैन दर्शन ने तात्त्विक दृष्टि से अवधि, मनःपर्याय और केवल-इन तीन ज्ञान को प्रत्यक्षरूप में माना है। मति और श्रुत वस्तुतः परोक्ष होने पर भी उनमें इन्द्रियजन्य मतिज्ञान को प्रत्यक्ष कहा जाता है पर यह तात्त्विक दृष्टि से अवधि, मनःपर्याय और केवल-इन तीन ज्ञान को प्रत्यक्षरूव में माना है। मति
और श्रुत वस्तुतः परोक्ष होने पर भी उनमें इन्द्रियजन्य मतिज्ञान को प्रत्यक्ष कहा जाता है पर यह तात्त्विक दृष्टि से नहीं, इसमें लोकव्यवहार की स्थूल दृष्टि ही है। तात्त्विक दृष्टि से तो, यह ज्ञान श्रुतज्ञान की तरह परोक्ष ही है। इन दोनों आचार्यो का यह स्पष्टीकरण इतना असन्दिग्ध है कि आज तक के परवर्ती किसी ग्रन्थकार ने उसमें संशोधन या परिवर्धन करने की आवश्यकता नहीं समझी।