Book Title: Sambodhi 2009 Vol 32
Author(s): J B Shah, K M patel
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 127
________________ Vol. XXXII, 2009 जैन दार्शनिक साहित्य में ज्ञान और प्रमाण के समन्वय का प्रश्न । 121 मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय और केवलज्ञानावरणीय-ऐसे शब्दों का प्रयोग हुआ है । प्रत्यक्षावरण, परोक्षावरण, अनुमानावरण, उपमानावरण, आगमावरण आदि शब्दों का प्रयोग देखने को नहीं मिलता । ज्ञान प्रमाण के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष-ये दो भेद तथा प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम आदि चार भेद करने की पद्धति को तार्किक पद्धति कहने के पीछे भी दो कारण हैं१. उसमें प्रायोजित प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान आदि शब्द न्याय, बौद्ध आदि जैनेतर दर्शनों में भी प्रचलित हैं। २. प्रत्यक्ष, परोक्ष इत्यादि रूप में ज्ञान-वृत्ति का पृथक्करण करने में तर्कदृष्टि प्रधान है। मूल आगमों से लेकर उपाध्याय यशोविजयजी के ग्रन्थों तक ज्ञान-निरूपण-विषयक समग्र श्वेताम्बर, दिगम्बर वाङ्मय में आगमिक एवं तार्किक दोनों पद्धतियों को स्वीकार किया गया है। ___ इन दोनों में आगमिक पद्धति अति प्राचीन लगती है, यद्यपि दूसरी तार्किक पद्धति भी जैन वाङ्मय में प्राचीन काल से अस्तित्व में है। परन्तु दार्शनिक सङ्घर्ष तथा तर्कशास्त्र के परिशीलन के परिणामस्वरूप ही उसे योग्य रूप में स्थान मिला है, ऐसा प्रतीत होता है । मूल आगमों में से भगवतीसूत्र में आगमिक पद्धति की, स्थानाङ्ग में तार्किक पद्धति के दोनों प्रकारों की, नन्दी में द्विभेदी तार्किक पद्धति की और अनुयोगद्वार में चतुर्विध तार्किक पद्धति कहना चाहिए । क्योंकि प्रत्यक्ष के व्यावहारिक और पारमार्थिक भेदों के प्रथम भेद में मतिज्ञान को रखकर तथा दूसरे विभाग में अवधि, मनःपर्याय एवं केवलज्ञान को और परोक्षज्ञान में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, आगम आदि को रखकर एक शुद्ध तार्किक पद्धति का विनियोग किया जा सकता है। ज्ञान एवं प्रमाण के समन्वय का अभाव मूल आगमों में आगमिक एवं तार्किक इन दोनों पद्धतियों से समग्र ज्ञान-वृत्ति का निरूपण हुआ है, तथापि इन दो पद्धतियों का परस्पर समन्वय हुआ दिखाई नहीं देता । भद्रबाहुकृत दशवैकालिक नियुक्ति के प्रथम अध्ययन में न्याय-प्रसिद्ध परार्थ-अनुमान का वर्णन जैन दृष्टि से किया गया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि नियुक्तिकार के पूर्व तार्किक पद्धति जैनशास्त्र में स्थान प्राप्त कर चुकी होगी, तथापि नियुक्ति तक में इन दो पद्धतियों का समन्वय देखने को नहीं मिलता । जैन आगमिक आचार्यों ने प्रमाण-चर्चा को ज्ञान-चर्चा से भिन्नरखा है । आगमों में जहाँ ज्ञान की चर्चा आती है, वहाँ प्रमाण अप्रमाण के साथ ज्ञान का सम्बन्ध बताने का प्रयास नहीं हुआ है और जहाँ ज्ञान की चर्चा हुई है, वहाँ प्रमाण को ज्ञान कहने पर भी प्रमाण में आगम प्रसिद्ध पाँच ज्ञानों का समावेश और समन्वय कैसे हुआ, यह नहीं बताया गया अर्थात् आगमिकों ने जैनशास्त्र में प्रसिद्ध ज्ञान-चर्चा और दर्शनान्तर में प्रसिद्ध प्रमाण-चर्चा का समन्वय करने का प्रयत्न नहीं किया है। अनुयोग और नन्दी में ज्ञान एवं प्रमाण के समन्वय का अस्पष्ट सूचन अनुयोगद्वार में इन दो पद्धतियों के समन्वय का सङ्केत मिलता है । नन्दीसूत्र में भी ऐसा प्रयत्न दिखाई देता है, तथापि दोनों की पद्धतियाँ भिन्न हैं। अनुयोगद्वार में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगमइन चार प्रमाणों के उल्लेख के साथ प्रथम भूमिका निश्चित की गयी है। पूर्व प्रस्तुत तालिका में प्रत्यक्ष ज्ञान-प्रमाण के दो भेद किये गये हैं, यथा-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष एवं

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