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कानजीभाई पटेल
SAMBODHI
नोइन्द्रिय-प्रत्यक्ष । इन्द्रिय-प्रत्यक्ष में श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय- इन पाँच प्रकार के प्रत्यक्षों का समावेश हुआ है। उसी प्रकार नोइन्द्रिय-प्रत्यक्ष प्रमाण में जैनशास्त्र-प्रसिद्ध तीन प्रत्यक्षों का समावेश हुआ है- अवधिज्ञान प्रत्यक्ष, मनःपर्यायज्ञान प्रत्यक्ष और केवलज्ञान प्रत्यक्ष । इस प्रकार यहाँ प्रत्यक्ष के दो विभागों में से एक विभाग में मतिज्ञान को प्रत्यक्ष मान्य रखा है और दूसरे विभाग में अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है । श्रुतज्ञान को आगम में रखा है।
नन्दीसूत्र में भी अनुयोगद्वार की तरह ही समन्व्य का प्रयत्न हुआ है। परन्तु उसकी पद्धति अलग है। उसमें प्रमाण के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष-ऐसे दो भेद बताये हैं । पुनः प्रत्यक्ष को दो उपविभागों में विभाजित कर, प्रथम विभाग में श्रोत्रेन्द्रिय आदि मतिज्ञान के पाँच प्रकारों को और दूसरे विभाग में अवधि आदि तीन ज्ञानों को वर्गीकृत किया है; परन्तु आगे जहाँ परोक्ष के भेदों का वर्णन हुआ है, वहाँ नन्दीकार ने श्रुतज्ञान के साथ-साथ मतिज्ञान (आभिनिबोधिक) का भी परोक्ष प्रमाण के रूप में वर्णन किया है।
इस प्रकार जहाँ अनुयोगद्वारसूत्र में चतुर्विध प्रमाण और पाँच ज्ञान का समन्वय हुआ है, वहीं नन्दीसूत्र में द्विविध प्रमाण एवं पाँच ज्ञान का समन्वय हुआ है , ऐसा प्रतीत होता है । जैन परम्परानुसार इन्द्रियजन्य ज्ञान, परोक्ष ज्ञान कहा जाता है । जैनेतर अन्य दर्शनों ने इन्द्रियजन्य ज्ञान को परोक्ष नहीं, अपितु प्रत्यक्ष माना है। इस लौकिक मतानुसरण द्वारा अनुयोगद्वार तथा नन्दीसूत्र में मतिज्ञान (इन्द्रियजन्य मतिज्ञान) को प्रत्यक्ष के एक भाग के रूप में वर्णित करके लोकमान्यता को स्वीकृति दी गई तथा अन्यान्य दर्शनों से विरोध-भाव भी कम हुआ, परन्तु इससे प्रमाण एवं ज्ञान के समन्वय का विचार स्पष्ट और असन्दिग्ध नहीं हुआ। लौकिक और आगमिक विचार का समन्वय करते समय अनुयोगद्वार में मतिज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण कहा गया (जिसको परवर्ती प्रमाण-मीमांसकों ने सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष कहा है )। श्रुतज्ञान को आगम में रखा और अवधिज्ञान, मनःपर्याय तथा केवलज्ञान को पुनः प्रत्यक्ष प्रमाण कहा । परन्तु मनोजन्य मतिज्ञान को कौन-सा प्रमाण कहना तथा प्रमाण-पक्ष की दृष्टि से अनुमान और उपमान को कौन से ज्ञान कहना, यह बात स्पष्ट नहीं हुई । वह बात निम्न समीकरण से स्वयं स्पष्ट हैज्ञान
प्रमाण १. (अ) इन्द्रियजन्यमतिज्ञान = प्रत्यक्ष __(ब) मनोजन्यमतिज्ञान
आगम ३. अवधि ४. मनःपर्याय
प्रत्यक्ष केवल
अनुमान
आगम पूर्ण समन्वय कैसे हो ?
न्यायशास्त्रानुसार मानस-ज्ञान के दो प्रकार हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष । सुख-दुःखादि विषयों से सम्बन्धित मानसज्ञान प्रत्यक्ष तथा अनुमान, उपमानादि से सम्बन्धित मानसज्ञान परोक्ष कहा जाता है। अतः मनोजन्यमतिज्ञान,
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