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Vol.XXXII, 2009
जैन दार्शनिक साहित्य में ज्ञान और प्रमाण के समन्वय का प्रश्न नन्दीसूत्र में ज्ञानचर्चा की तृतीय भूमिका व्यक्त होती है, जो इस प्रकार है
ज्ञान
[१ आभिनिबोधिक, २ श्रुत, |
३ अवधि, ४ मन:पर्याय, ५. केवल]
प्रत्यक्ष
परोक्ष
नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष
आभिनिबोधिक (मतिज्ञान) श्रुत
इन्द्रिय प्रत्यक्ष १. श्रोत्रेन्द्रिय प्रत्यक्ष २. चक्षुरिन्द्रय प्रत्यक्ष ३. घ्राणेन्द्रिय प्रत्यक्ष ४. जिह्वेन्द्रिय प्रत्यक्ष ५. स्पर्शेन्द्रिय प्रत्यक्ष
१. अवधि । २. मनःपर्याय श्रुतनिःसृत ३. केवल
अश्रुतनिःसृत
अवग्रह ईहा
अवाय
धारणा
व्यञ्जनावग्रह
अर्थावग्रह
औत्पत्तिकी वैनयिकि कर्मजा पारिणामिकी प्रस्तुत तालिका से स्पष्ट है कि नन्दीसूत्र में प्रथम तो ज्ञान के पाँच भेद किये गये हैं । पुनः उनको प्रत्यक्ष और परोक्ष-ऐसे दो भेदों में वर्गीकृत किया गया है। स्थानाङ्ग से इसकी विशेषता यह है कि इसमें इन्द्रियजन्य मतिज्ञान का स्थान प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों में है। जैनेतर सभी दर्शनों में इन्द्रियजन्य ज्ञान को परोक्ष नहीं, अपितु प्रत्यक्ष माना गया है। इस लौकिक मत का नन्दीसूत्रकार ने समन्वय किया है। आचार्य जिनभद्र ने इन दोनों का समन्वय कर यह स्पष्ट किया है कि इन्द्रियजन्य मतिज्ञान को सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष कहम चाहि अर्थात् लोकव्यवहार के आधार पर इन्द्रियजन्य मतिशान को प्रत्यक्षा शान कहा गया है। पस्तु. वह परोक्ष ज्ञान ही है। प्रत्यक्ष ज्ञान तो अवधि, मनःपर्याय तथा केवल ज्ञान ही है। आचार्य अकलङ्क
और उनके परवर्ती जैनाचार्यों ने ज्ञान के सांव्यावहारिक और पारमार्थिक ऐसे दो भेद किये हैं, जो मौलिक नहीं हैं, परन्तु उनका आधार नन्दीसूत्र और जिनभद्रकृत स्पष्टीकरण है ।
___ इस प्रकार अनुयोगद्वार-सूत्र की ज्ञान के स्वरूप की चर्चा नन्दी-ज्ञान-सम्मत-चर्चा से भिन्न है । इसमें प्रत्यक्ष और परोक्ष-ऐसे दो भेद नहीं अपितु प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम-इन चार भेदों