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कानजीभाई पटेल
SAMBODHI
रखता है, उसका जैन सिद्धान्तानुसार परोक्षज्ञान में समावेश किया गया है।
३. इन्द्रियजन्य ज्ञानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों में स्थान दिया गया है। यह तृतीय भूमिका है।
इन तीन भूमिकाओं में से किसी भी एक का अनुसरण अनुयोगद्वार-सूत्र में नहीं किया गया है, तथापि यह तीसरी भूमिका के अधिक निकट है। प्रथम प्रकार का वर्णन हमें भगवतीसूत्र में (८८-२-३१७) मिलता है, जिसमें ज्ञान के पाँच भेद कर आभिनिबोधिक के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा–ये चार भेद बताये गये हैं । स्थानाङ्ग में ज्ञान के स्वरूप की चर्चा द्वितीय भूमिका के अनुसार है। उसमें ज्ञान के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष-ऐसे दो भेद कर उनमें पाच ज्ञानों की योजना की गई है। निम्न तालिका से यह बात स्पष्ट हो जाती है, इसमें ज्ञान के मुख्य दो भेद किये गये हैं, पाँच नहीं । मुख्य दो भेदों में ही पाँच ज्ञानों का समावेश किया गया है। यह स्पष्टतः प्रथम भूमिका का विकास है। पं. दलसुखभाई मालवणिया के मतानुसार इस भूमिका के आधार पर उमास्वाति ने प्रमाणों को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष-ऐसे दो भेदों में विभक्त कर, उन्हीं दो में पाँच ज्ञानों का समावेश किया है ।
ज्ञान
१ प्रत्यक्ष
२ परोक्ष
१ केवल
२ नोकेवल
१ आभिनिबोधिक
२ श्रुतज्ञान
१ अवधि
२ मनःपर्याय
१ भवप्रत्यायिक २ क्षायोपशमिक
१श्रुतनिःसृत
२ अश्रुतनिःसृत
१ अर्थावग्रह २ व्यञ्जनावग्रह
१ ऋजुमति
२ विपुलमति
१अर्थावग्रह २ व्यञ्जनावग्रह
१ अङ्गप्रविष्ट
२ अङ्गबाह्य
१ आवश्यक
२आवश्यक-व्यतिरिक्त
१ कालिक
२ उत्कालिक