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विजयपाल शास्त्री
SAMBODHI
व्यतिरेक के प्रसङ्ग में काव्यप्रकाशकार ने इसके प्रथम भेद के अनन्तर-उपमान के अपकर्ष की अनुक्ति, उपमेय के उत्कर्ष की अनुक्ति व इन दोनों की अनुक्ति से जो अगले तीन भेद दिखाए हैं, उनके लिए माणिक्यचन्द्र स्वरचित उदाहरण प्रस्तुत करते हैंनित्योदितप्रतापस्य तपनेन तुला न ते ।
(पृ० २५१) हे राजन् ! नित्य उदित प्रतापवाले आपकी सूर्य से क्या तुलना हो सकती है ? यहाँ नित्योदितप्रतापत्व उपमेयोत्कर्ष हेतु कहा गया है। क्षणोदितप्रतापेन तपनेन तुला न ते ।
(पृ० २५१) हे राजन् ! कुछ समय तक उदित प्रताप वाले सूर्य के साथ आपकी क्या तुलना हो सकती है? यहाँ क्षणोदितप्रतापत्व उपमानापकर्ष हेतु कहा गया है । महीमण्डलमाणिक्य ! प्रतापेन तुला न ते ।
(पृ० २५१) ___ इस पाठ में उत्कर्ष व अपकर्ष के हेतुओं का कथन न होने से यह तीसरे प्रकार की अनुक्ति का उदाहरण बनता है।
इसके अनन्तर श्लेषयुक्त भेदों के प्रसङ्ग में मम्मटाचार्य कहते हैं- एवंजातीयकाः श्लिष्टोक्तियोग्यस्य पदस्य पृथगुपादानेऽन्येऽपि भेदाः सम्भवन्ति । तेऽपि अनयैव दिशा द्रष्टव्याः । इस सन्दर्भ में सङ्केतकार एक स्वरचित उदाहरण प्रस्तुत करते हैं
सच्चक्रानन्दनोऽप्येष न तुल्यः तपनस्तव । ससूरस्सजया येन ससूरः सुभटैर्भवान् ॥
(पृ० २५२) ___ यहाँ सङ्केतकार कहते हैं- 'अत्रापि हेत्वोरुक्तिः । इवाद्यभावादत्र पूर्वत्रापि आक्षिप्तौपम्ये, द्वयोक्तौ श्लेषव्यतिरिकाद्यो भेदः । अत्रापि श्लिष्टोक्तियोग्यस्य पदस्य पृथग्भावः । अन्येऽपीति एकादश भेदाः'।
सच्चक्र से आनन्दित करनेवाला होने पर भी यह तपन(सूर्य) तुम्हारे तुल्य नहीं है, क्योंकि'नाम्ना स शूरः'- वह तो नाम से ही शूर है, किन्तु तुम सुभटों से युक्त होने के कारण वस्तुतः ‘सशूर' हो । यहाँ भी अपकर्ष व उत्कर्ष के हेतुओं का कथन है। आचार्य मम्मट द्वारा अनुमानालङ्कार के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत
यौता लहरीचलाचलदृशो व्यापारयन्ति ध्रुवं, यत्तत्रैव पतन्ति सन्ततममी मर्मस्पृशो मार्गणाः ।
तच्चक्रीकृतचापमञ्चितशरप्रेडत्करः क्रोधनो
, धावत्यग्रत एव शासनधरः सत्यं सदासौ स्मरः ॥ इस उदाहरण पर सङ्केतकार कहते हैं कि- यत्रेति कान्ते । एताः कामिन्यः । अत्र कामिनीरूपो धर्मी, भ्रूव्यापारद्वारेण बाणपातः साधनम् । स्मरस्याग्रगत्वं साध्यम् ।