________________
Vol. XXXII, 2009 काव्यप्रकाश-सङ्केतकार आचार्य माणिक्यचन्द्रसूरि के स्वरचित उदाहरण 95 पार्श्वनाथ हमारे कलुषों को दूर करें ।
इस प्रकार यह विचित्र श्लोक मुनि माणिक्यचन्द्र ने प्रभु पार्श्वनाथ की स्तुति में बनाया है । इससे इनकी विशिष्ट कवित्वशक्ति स्पष्टतया परिलक्षित होती है। ..
अर्थालङ्कार-विषयक दशम उल्लास के आरम्भ में माणिक्यचन्द्र अपने सङ्केत के विषय में निम्न पद्य प्रस्तुत करते हैं -
(दशमोल्लासारम्भे) पारेऽलङ्कारगहनं सङ्केताध्वानमन्तरा ।। सुधियां बुद्धिशकटी कथङ्कारं प्रयास्यति ॥
(पृ० २१९) सुधी जनों की बुद्धिरूपी शकटी (गाड़ी) सङ्केत रूपी मार्ग के अभाव में अलङ्कार रूप सघन वन के पार कैसे जाएगी ?
उत्प्रेक्षालङ्कार के प्रसङ्ग में सङ्केतकार कहते हैं कि- क्वापि क्विब्विधावामुखे उपमाछायानिर्वाहे तूपमानस्य प्रकृतेः सम्भवौचित्यात् सम्भावनोत्थाने उत्प्रेक्षा, यथा स्वम्
यस्याज्ञया समं पादपद्मद्वयनखद्युतिः । मालतीमाल्यतितरां नमद्भूपालमौलिषु ॥
(पृ० २३०) जिसकी आज्ञा के साथ ही चरणकमल युगल के नखों की शोभा झुकते हुए भूपालों के मस्तकों पर मालती-माला के समान हो जाती थी, अर्थात् जैसे सिर झुकाए राजा उनकी आज्ञा को सिर पर धारण करते थे वैसे ही उनके चरणों के नखों की धुति को भी धारण करते थे । यह श्लोक किसके विषय में है, इसका पूर्वापर प्रसङ्ग क्या है ? यह गवेषणीय है । __अपहृति का सोदाहरण वर्णन करने के बाद काव्यप्रकाशकार कहते हैं कि 'एवमियं भयन्तरैप्यूह्या" । काव्यप्रकाशकार की इस उक्ति के सन्दर्भ में भङ्गयन्तर से अपहृति का स्वरचित उदाहरण सङ्केतकार इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं
आरुरोह चितामेष मालतीविरहादलिः । न किंशुकस्य कुसुमे वर्तते जीवितेश्वरि ॥
(पृ० २३७) हे जीवतेश्वरी ! यह भ्रमर मालती के विरह से चिता पर चढ़ गया है, न कि किंशुक के फूल पर बैठा है।
यहाँ भङ्गयन्तरता को स्पष्ट करते हुए माणिक्यचन्द्र कहते हैं कि मेरे द्वारा प्रस्तुत उदाहरण में आरोप पहले है, अपह्नव बाद में । किन्तु 'इदं ते केनोक्तम्' इस काव्यप्रकाशगत उदाहरण में अपह्नव पहले तथा आरोप बाद में है। दोनों स्थानों पर क्रमश:- 'यह फूल नहीं किन्तु चिता है' तथा 'कटक नहीं किन्तु स्मरचक्र है' यह अर्थ होता है । सङ्केतकार का कहना है कि भङ्गयन्तर भणितिविशेष होते हैं, जो कदाचित् कथञ्चित् किसी भी काव्य में निविष्ट हुए देखने को मिल जाते हैं ।