Book Title: Sambodhi 2009 Vol 32
Author(s): J B Shah, K M patel
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 109
________________ Vol. XXXII, 2009 अनेकान्तवाद : सिद्धान्त और व्यवहार 103 महान है । भारतीय साहित्य में सबसे प्राचीनतम ऋग्वेद में भी परस्पर विरोधी मान्यताओं में निहित सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार करते हुए यह भी कहा गया है –'एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति' अर्थात् सत् एक है और विद्वान उसे अनेक दृष्टि से व्याख्यायित करते हैं । इस प्रकार अनेकान्तिक दृष्टि का इतिहास अति प्राचीन है। जैनदर्शन सापेक्षतावादी दर्शन है। इसके द्वारा निरूपित सापेक्षता जब तत्त्वमीमांसा के क्षेत्र में होती है तब वह अनेकान्तवाद के नाम से जानी जाती है, जब ज्ञानमीमांसा के क्षेत्र में होती है तब उसे स्याद्वाद के नाम से जाना जाता है और जब आचारमीमांसा के क्षेत्र में होती है तब उसे अहिंसावाद की संज्ञा प्राप्त होती है । इसी को दूसरे रूप में ऐसे भी कह सकते है कि सापेक्षता का सिद्धान्त जब विचार में होता है तब इसे अनेकान्तवाद कहते है, जब भाषा में होता है तब इसे स्याद्वाद कहते हैं और क्रिया रूप में आने पर यही अहिंसावाद हो जाता है। अतः जैनों का सापेक्षतावादी दृष्टिकोण ही विचार, भाषा और क्रिया रूप में क्रमशः अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और अहिंसावाद के रूप में जाना जाता है। अनेकान्तवाद जैन तत्त्वमीमांसा का ही नहीं बल्कि ज्ञानमीमांसा और आचार मीमांसा का भी महत्त्वपूर्ण अंग है । वस्तुतः अनेकान्तवाद और जैनदर्शन का घनिष्ट सम्बन्ध है। यदि ऐसा कहा जाय कि अनेकान्तवाद जैनदर्शन है अथवा जैन दर्शन अनेकान्तवाद है तो न अनुचित होगा और न अतिशयोक्ति ही। ___ अनेकान्तवाद में अन्त पद का अर्थ वस्तु एवम् धर्म दोनों हैं । अर्थात् इस लोक में अनेक वस्तुएँ हैं तथा प्रत्येक वस्तु (पदार्थ) के अनन्त धर्म होते हैं । सामान्यतः कोई व्यक्ति जिस पदार्थ को जैसा देखता है, वैसा समझ लेता है। जबकि उसका पूर्ण और यथार्थ ज्ञान उसके अनेक स्वरूपों को देखने पर ही सम्भव हो सकता है । एक ही व्यक्ति पुत्र की अपेक्षा से पिता है, पत्नी की अपेक्षा पति है तो माता की अपेक्षा से पुत्र है। वस्तु के अनन्त धर्मों में एक मुख्य धर्म होता है जिसका कि प्रतिपादन किया जाता है। अन्य सभी धर्म गौड़ हो जाते हैं, क्योंकि उनके सन्दर्भ में अभी कुछ नहीं कहा जा रहा है। यह मुख्यता और गौड़ता वस्तु में विद्यमान धर्मों की अपेक्षा से नहीं अपितु वक्ता की इच्छानुसार होती है । अर्थात् ये वाणी के भेद है वस्तु के नहीं । हमारे विचार से वस्तु नहीं बनती अपितु वस्तु का अपना स्वरूप होता है । आचार्य धर्मकीर्ति के अनुसार यदि अनेक धर्मता वस्तुओं को स्वयं अच्छी लगती है तथा उसके बिना उसका अस्तित्व ही सम्भव नहीं है तो उसका निषेध करनेवाले हम कौन होते है ?२ केवल केवली पुरुष ही केवल ज्ञान के द्वारा वस्तुओं के अनन्त धर्मों का अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त कर सकता है । साधारण मनुष्य किसी वस्तु को किसी समय एकही दृष्टिकोण से देख सकता है तथा वस्तु का एक ही धर्म जान सकता है । वस्तुओं के इस आंशिक ज्ञान को जैन दर्शन में 'नय' कहा जाता है। चूंकि यहा पदार्थ के एक पक्ष पर विचार किया जाता है । अतः यह विचार एकान्तिक होता है । फिर भी यह असत्य नहीं कहा सकता । सत्ता का यह कथन सापेक्षिक होता है। जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य सत् है तथा उत्पाद, व्यय एवम् ध्रौव्य उसके लक्षण हैं ।३ यह त्रिपदी अनेकान्त की विचार पद्धति का सारतत्त्व है । इस दृष्टि से प्रत्येक वस्तु-सत्ता के दो अंश-नित्य और

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