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तनूजा सिंह
SAMBODHI
को भर्ती कर लिया था और इन निर्माण कार्यों का निरीक्षण, लेखा-जोखा दीवान जीवाराम बंचरी को सौप दिया था। बाँसी पहाड़पुर, रुपवास, बारैठा से वैर, भरतपुर, कुम्हेर, डीग, गोवर्धन, मथुरा, वृन्दावन, सहार, कामां, किसनगढ़, रामगढ़ आदि में उत्कृष्ट श्रेणी का पत्थर पहुंचाने के लिए जाट राज्य में १००० बैलगाड़िया, २०० खच्चर गाडिया, १५०० ऊट गाडिया, ५०० खच्चर बैलगाड़ियाँ सदैव तैयार रहते थे । भरतपुर के विशाल दुर्ग व नगर की स्थापना के बाद राजा सूरजमल ने डीग के अति भव्य विशाल जल महलों का निर्माण कार्य प्रारम्भ किया ।
यहाँ के उद्यान-भवन हिन्दू शिल्पकला के प्रतीक है। भवनों के बीच रंगीन फूल पत्तियों से सुसज्जित स्तम्भ, झरोखें, बारहदरी, छतरी तथा गुम्बजों की कला दर्शनीय है। शासक ने कलाकारों को विशेष वेतन देकर कार्य करवाया था। राजा सूरजमल ने पवित्र और दानी सेठों की भाँति अपने ऊपर खर्च न करके अनेक शाही भवनों के निर्माण में दिल खोलकर खर्च किया ।३८ उसने सूरज भवन, किशन भवन, गोपाल भवन जैसे महल बनवाये जिनकी बनावट के ढंग तथा कलाको जाटकला के नाम से पुकारते है ।२९
भवनों में सभी काम सफेद पत्थर का है जिसे Cream Colour Sand Stone कहते है। महराव, फिरंग, छावन, टोडी, रौस, पट्टी, जाली फर्श, फब्बारे, छत, गाटर, चौखट तथा अन्य खदाई व शिल्पकला का काम भी इसी प पत्थर का है। यहा लाल पत्थर का काम कम है। उस समय तथा वर्तमान में भी यह पत्थर वांसी पहाडपुर की खानों से निकाला जाता रहा है। यह स्थान डीग से ५० मील दक्षिण में इसी राज्य में था इसलिय वहाँ से इस पत्थर का आवश्यकता के अनुसार कटवाया जाकर डीग भिजवाने में कोई कठिनाई नहीं थी। राजा को केवल मजदूरी ही देनी होती थी। खानों से सफेद पत्थर के भीमकाय टुकड़े निकाले जाकर उन्हें सुविधा के अनुसार काट दिया जाता था। कलाकार पत्थर को आधी इन्च की मोटाई तक में काट दिया करते थे। यहाँ के कुशल शिल्पी अपनी सधी हुई अंगुलियों के सहारे इन पत्थरों पर अदभुत कारीगरी का करिश्मा दिखलाते थे। उनका यह करिश्मा सदियों तक दर्शकों को आनन्द और आश्चर्य विभोर करेगा। चूना इत्यादि सामग्री पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थी। चुनाई का पत्थर भी इन स्थानों से ही लाया गया था। लकड़ी व लोहे का कम प्रयोग है। भवनों में चूने के प्लास्टर पर सीपी की पालिश है। सीपिटों का भण्डार डीग के ही व्यापारियों द्वारा लाया जाता था। उस समय सभी सम्पन्न व्यक्ति अपने भवनों में सीपी की पालिश ही प्रयोग में लिया करते थे। अतः अन्य वस्तुओंके साथ व्यापारी सीपी के भण्डार भी रखते थे।
डीग में भादों की अमावस्या को एक बड़ा मेला लगता था । कुल मिलाकर उस समय तक यह नगर कला कौशल का केन्द्र बन चुका था हाथी दाँत के चमर पंखियाँ यहाँ उच्चकोटि की बनाई जाती थी।° पंखियों में तारकशी का मनोहर काम तथा यहाँ से निर्यात होता था। भारत के अन्य भागों से कारीगरों की भी जरूरत थी जो तोप ढ़ालने का काम करते थे । अतः संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि यह नगर कलाकारों का श्रेष्ठ नगर बसा दिया गया था तथा यह नहीं भूलना चाहिए कि इन शिल्प कला-कृत्तियों का निर्माण, इत्यादि कलात्मक कार्य उस काल में हुआ था, जब इसका निर्माता राजा सूरजमल अनेक संघर्षपूर्ण युद्धों में अत्यन्त व्यस्त थे । मार काट की विभीषिका में निरन्तर फंसे रहने पर भी उन्होंने जिस सुरुचि, सूझ-बूझ और कल्पनाशीलता का परिचय दिया वह उनकी अनुपम कलाभिरूचि का सूचक है।