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विजयपाल शास्त्री
SAMBODHI
अप्रमाणमप्रमानमङ्गीकुर्वन् गुणव्रजम् । देवदेव समक्षोऽसि साधूनामध्वनि व्रजन् ॥
(पृ० २०५) अपरिमित गुणसमूह को धारण करने के उपरान्त भी मानरहित बने हुए सज्जनों के मार्ग में चलते हुए हे देवदेव ! तुम सबके समक्ष हो । चित्रकाव्य के प्रसङ्ग में वर्णच्युत का स्वरचित उदाहरण सङ्केतकार इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं
नृपदितिजामरप्रभुनताघ्रियुगो जलदद्युतिविभुः पृथुभुजगाधिपस्फुटफणासुभगः कमठारिजित्तथा ।
शिवसुखसम्पदव्ययविलासगृहं निखिलैनसां हरो
. घनविधुतावनी हरतु नः सकलः कलिलावली जिनः ॥ (पृ० २०६) नृपों दैत्यों देवों द्वारा जिसकी चरणवन्दना की है, जो जलद के समान कान्ति वाले प्रभु हैं, विशाल नागराज के स्फुट फण से सुन्दर बने हुए हैं तथा कमठारिजित् हैं, कल्याणकारिणी सुख सम्पदा के शाश्वत विलासगृह हैं, निखिल पापों के हर्ता हैं-इस प्रकार के 'जिन' भगवान् पार्श्वनाथ हमारी सघन चपलता व सारी तामसिकता हर लें।
यहाँ 'सिद्धि' छन्द में श्री पार्श्वनाथ का वर्णन है । 'सिद्धि' छन्द युक्त इस श्लोक के प्रत्येक चरण के आरम्भ के दो व अन्त के सात अक्षर छोड़ने से यह 'प्रमिताक्षरा' छन्द के रूप में परिणत हो जाता है
(प्रमिताक्षरा) दितिजामरप्रभुनताघ्रियुगो भुजगाधिपस्फुटफणासुभगः।।
सुखसम्पदव्ययविलासगृहं विधुतावनी हरतु नः सकलः ॥ (पृ० २१६) इसमें भी प्रायः पूर्वोक्त वर्णन ही है- असुरराज व देवराज द्वारा वन्दित चरणयुगल वाले, नागराज की मनोहर फणा से दर्शनीय बने, कलासम्पन्न सुख-सम्पदा के अविनश्वर गृह रूप भगवान् पार्श्वनाथ विधुतावनीम्= पीडित कर दिया है भूमण्डल को जिसने ऐसे कलुष(पाप) को दूर करें ।
इसी प्रकार उक्त 'सिद्धि' छन्द के प्रत्येक चरण के आरम्भ के सात व अन्त के दो अक्षर छोड़ देने से यह द्रुतविलम्बित बन जाता है
__ (द्रुतविलम्बितम्) प्रभुनताघ्रियुगो जलदद्युतिः स्फुटफणासुभगः कमठारिजित् ।
व्ययविलासगृहं निखिलैनसां हरतु नः सकलः कलिलावलीम् ॥ (पृ० २१६) ___ इसमें भी पूर्वोक्त जैसा ही वर्णन है- प्रभुओं (राजाओं) द्वारा वन्दित चरणयुगल वाले, मेघ के समान श्याम कान्ति वाले सिर पर स्पष्ट दिखने वाली सर्पफणा से शोभित, कमठारिजित् (कमठ नामक पूर्वभव के शत्रु को जीतनेवाले), सकल पापों का लीलापूर्वक विनाश करनेवाले कलासम्पन्न भगवान्