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Vol. XXXII, 2009 काव्यप्रकाश-सङ्केतकार आचार्य माणिक्यचन्द्रसूरि के स्वरचित उदाहरण 97 अलङ्कारान्तरहितं साधनं निर्दिष्टम् । क्वचिदलङ्कारान्तरगर्भितत्वेन हेतुर्निर्दिश्यते । स्वं यथा
यथा पङ्कजिनीपत्रे पदौघः (?) प्रगुणीकृतः ।
तथा मन्ये वियोगिन्यः स्मरभिल्लेन घातिताः ॥ (पृ० २७०) जैसे ही कमलिनीपत्र पर पदौघ= पदसमूह को बढ़ाना आरम्भ किया, उससे लगता है कि वियोगिनियाँ कामरूपी व्याध के द्वारा घायल कर दी गई । इस श्लोक के पूर्वार्द्ध का अन्वय व भाव भी पूर्णतया स्पष्ट नहीं हो पाया है ।
(दशमोल्लासान्ते) गुणानपेक्षिणी यस्मिन् अर्थालङ्कारतत्परा ।
प्रौढाऽपि जायते बुद्धिः सङ्केतः सोऽयमद्भुतः ॥ (पृ० ६१०-६११) जिस सङ्केत में प्रौढबुद्धि भी गुणों की अपेक्षा न करनेवाली तथा अर्थालङ्कारों में तत्पर हो जाती है, वह सङ्केत अद्भुत है। दशम उल्लास की समाप्ति पर माणिक्यचन्द्र सूरि 'सङ्केत' की सार्थकता व महत्ता बता रहे हैं
(दशमोल्लासान्ते ग्रन्थप्रशस्तिः) नानाग्रन्थसमुद्धतैरसकलैरप्येष संसूचितः सङ्केतोऽर्थलवैर्लविष्यति नृणां शङ्के विशङ्कं तमः । निष्पन्ना ननु जीर्णशीर्णवसर्नीरन्ध्रविच्छित्तिभिः
प्रालेयप्रथितां न मन्थति कथं कन्था व्यथां सर्वथा ॥ नाना ग्रन्थों से समुद्धृत असकल अर्थलेशों से ही संसूचित यह सङ्केत लगता है निस्सन्देहरूप से लोगों के तम (अज्ञान) को नष्ट करेगा । जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों के सघनता से जोड़े टुकड़ों द्वारा निष्पन्न कन्था (गुदड़ी) क्या शीत से होनेवाली व्यथा को नष्ट नहीं करती है ?
__ इसके आगे ९ श्लोकों में सङ्केतकार अपनी गुरुपरम्परा का वर्णन करते हैं । ये श्लोक पूर्वनिर्दिष्ट आनन्दाश्रम ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित संस्करण में नहीं हैं । इन्हें प्राच्यविद्या संशोधनालय मैसूर विश्वविद्यालय से प्रकाशित द्वितीय संस्करण के द्वितीय सम्पुट से लिया गया है, जो १९७७ ई. में प्रकाशित हुआ था ।
. (गुरुपरम्परा-वर्णनम्) श्रीशीलभद्रसूरीणां पट्टे माणिक्यसन्निभाः ।
परमज्योतिषो जाताः भरतेश्वरसूरयः ॥१॥ श्री शीलभद्रसूरि के पद पर माणिक्य तुल्य परम ज्योतिष्मान् श्री भरतेश्वरसूरि उत्तराधिकारी बने थे।