Book Title: Sambodhi 2009 Vol 32
Author(s): J B Shah, K M patel
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 97
________________ Vol. XXXII, 2009 काव्यप्रकाश-सङ्केतकार आचार्य माणिक्यचन्द्रसूरि के स्वरचित उदाहरण है। यहाँ ऐसा ही अपना एक अन्य पद्य प्रस्तुत करते हैं, जिसमें अशिथिलता है नीचाः स्वशीलं मुञ्चन्ति नोपकारापकारयोः । आरटन्त्येव करभाः भारारोहावरोहयोः ॥ (पृ० १९१) नीच के प्रति उपकार किया जाए या अपकार, दोनों स्थितियों में वे अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं । करभ (ऊंट के बच्चे-बोतड़े) पीठ पर भार रखने पर भी अरड़ाते हैं तथा उतारने पर भी। वामनने 'विकटत्वमुदारता' "सूत्र द्वारा उस गुण को उदारता कहा है जिसमें पद नाचते से प्रतीत होते हैं । माणिक्यचन्द्रने इसके उदाहरण के रूप में एक स्वरचित पद्य प्रस्तुत किया है यद्यशःकैरवारामे वैरिणामपकीर्तयः । भ्रमभृङ्गाङ्गनाभङ्गी अङ्गी कुर्वन्ति हेलया ॥ (पृ० १९२) उसके यशःकुमुदवन में घूमती हुई वैरियों की अपकीर्तियाँ कुमुदवन में घूमती हुई भ्रमराङ्गनाओं की भङ्गिमा को धारण करती थी। कविसमय के अनुसार कीर्ति धवल रूप में व अपकीर्ति कृष्णरूप में वर्णित की जाती है । इसी आधार पर सङ्केतकारने उक्त बात कही है ! अर्थव्यक्ति के उदाहरण के रूप में सङ्केतकार अपना निम्न पद्य प्रस्तुत करते हैं तदम्भः किं वाच्यं तनयिषु जगज्जीवनकर श्रियः क्रीडागारं जयति जलजं यस्य तनयः । कथं वा निर्वाच्यं सरसिजमिदं यस्य भुवन त्रयीस्रष्टा स्रष्टा समजनि सुतः सर्वमहितः ॥ (पृ० १९२) जगत् को जीवन देने वाला वह जल सन्तान वालों में बड़ा उत्कृष्ट है, जिसका तनय (पुत्र) कमल है, जो कि लक्ष्मी के लीलासदन के रूप में उत्कर्ष प्राप्त कर रहा है । इस कमल का भी क्या वर्णन किया जावे, जिसका पुत्र जगत्रयी का स्रष्टा सर्वपूज्य भगवान् ब्रह्मा है। 'औज्ज्वल्यं कान्तिः' ५ इस रूप में वामनाभिमत कान्ति नामक गुण क उदाहरण के रूप में सङ्केतकार अपना निम्न पद्य प्रस्तुत करते हैं - अस्तावनी विगलितोष्मणि संश्रितेऽर्के दिक्कामिनीषु रुदतीषु विहङ्गनादैः । सौरभ्यलीनमधुपालिमिषेण राज्ञा मृत्पिण्डमुद्रितमुखा इव पद्मकोशाः ॥ (पृ० १९३) उष्णता खो चुके सूर्य के अस्त होने पर, (सूर्यास्त काल में होनेवाले) पक्षियों के शब्द के बहाने से दिशा रूपी नारियों द्वारा रुदन सा करने पर, सुगन्धलोलुप भ्रमरों के बहाने से राजा (चन्द्र) ने मानो पद्मकोशों के मुखों को (काले काले) मृत्तिकापिण्डों से बन्द सा कर दिया था । इसके अनन्तर सङ्केतकार कहते हैं- 'ओजोऽपि औज्ज्वल्यतस्तहिकान्तिस्तस्माल्लोक

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