Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 13
________________ पहला पारधी जवान घटवेध में निष्फल हुआ..... दो घटों को बींध कर उसका बाण मुड़ गया। उस युवक पारधी का मुंह फीका पड़ गया। वह नीची दृष्टि किए एक ओर खिसक गया। मुखिया के पारधियों ने दूसरे सात घड़ों का तोरण वृक्ष पर बांध दिया। इस प्रकार यह निशानेबाजी रसमय हो गई जब घटवेध का क्रम पूरा हुआ और इतने स्पर्द्धकों में से केवल तीन व्यक्ति ही इस स्पर्धा में सफल हुए। इन तीन सफल पारधियों में सुदंत नामक एक जवान पारधी था। वह सभी तीनों में सशक्त, चपल और चतुर निशानेबाज और संस्कारी माना जाता था। दूसरे दोनों सफल पारधी भी वीरता के लिए प्रसिद्ध थे किन्तु वे सुदंत जैसे सुडोल, सुंदर और नयनाभिराम नहीं थे। सैंतीस पारधी जवानों में से केवल तीन पारधी ही सफल हुए थे और यह प्रश्न सबके सामने था कि इन तीनों में से कौन वासरी को प्राप्त कर पाएगा? इसके साथ एक प्रश्न यह भी उभरा कि केवल एक ही वनमहिष पकड़ा गया है, समाधान कैसे होगा? मुखिया के साथ अन्य वृद्ध पारधियों ने इस विषय की चर्चा की। तब मुखिया ने खड़े होकर कहा-'भाइयो! वासरी को प्राप्त करने की इस स्पर्धा में तीन जवान सफल हुए हैं। इन तीनों में से एक को ही पसन्द करना है। हमने एक ही वनमहिष को पकड़ा है। अत: यह निर्णय किया गया है कि सामने जो वटवृक्ष है उस पर एक रस्सी से एक घड़ा टांगा जाएगा। जो पारधी युवक अपने बाण से उस रस्सी को काट डालेगा उसको वनमहिष के साथ लड़ने का अवसर दिया जाएगा।' सभी ने इस निर्णय को हर्षध्वनि से स्वीकार किया। शरद् का चांद अपनी संपूर्ण कलाओं से चांदनी बिखेर रहा था। मनभावन प्रकाश किन्तु वह दिवस के प्रकाश जैसा तेजस्वी तो था ही नहीं। तेजस्वी हो भी कैसे? दो सौ कदम दूर रहकर बाण से रस्सी को काटना-यह नेत्रशक्ति और निशानेबाजी की कसौटी थी। सीधा-सा लगने वाला कार्य इतना सरल सहज नहीं था। फिर भी तीनों जवानों के हृदय आशा से नाच रहे थे। उत्साह प्रबल था और वासरी जैसी सुन्दर कन्या को पाने की तमन्ना उछल-कूद कर रही थी। मुखिया की आज्ञा से तीनों जवान उस लटकाए हुए घट से दो सौ कदम दूर खड़े हो गए। __ और निशानेबाजी प्रारंभ हुई। पहले युवक ने अत्यंत निपुणता से बाण छोड़ा'...... रस्सी कटी नहीं...... बाण रस्सी के पास से गुजर गया। दूसरा जवान भी निष्फल रहा। अन्त में एक जवान बचा। अब सुदंत की बारी थी। उसकी नेत्रशक्ति और पूर्वभव का अनुराग / ११

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