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प्रवचनसार गाथा २०५ - २०६
इन २०५ व २०६वीं गाथाओं की उत्थानिका में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि अब अनादि संस्कार से अनभ्यस्त होने से जो अत्यन्त अप्रसिद्ध है और नये प्रयास के अभ्यास की कुशलता से जो उपलब्ध होता है उस यथाजातरूपधरपने के बहिरंग और अंतरंग ह्न इन दो लिंगों का उपदेश करते हैं। तात्पर्य यह है कि इन गाथाओं में द्रव्यलिंग और भावलिंग की चर्चा करते हैं। गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं ह्र
जधजादरूवजादं उप्पाडिदकेसमंसुगं सुद्धं ।
रहिदं हिंसादीदो अप्पडिकम्मं हवदि लिंगं । । २०५ ।। मुच्छारंभविजुत्तं जुत्तं उवओगजोगसुद्धीहिं । लिंगं ण परावेक्खं अपुणब्भवकारणं जेन्हं । । २०६ ।। ( हरिगीत )
शृंगार अर हिंसा रहित अर केशलुंचन अकिंचन । यथाजातस्वरूप ही जिनवरकथित बहिलिंग है || २०५ || आरंभ- मूर्छा से रहित पर की अपेक्षा से रहित । शुध योग अर उपयोग से जिनकथित अंतरलिंग है || २०६ ॥ श्रमण का बाह्यलिंग (द्रव्यलिंग) सिर और दाढ़ी मूछ के बालों का लोंच वाला और जन्म के समय के रूप जैसे रूपवाला, शुद्ध, हिंसादि से रहित और शारीरिक शृंगार से रहित होता है। मूर्च्छा और आरंभ से रहित, उपयोग और योग की शुद्धि से सहित, पर की अपेक्षा रहित ऐसा जिनेन्द्रदेव कथित अंतरंग लिंग (भावलिंग) मोक्ष का कारण है।
आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“यथोक्त क्रम से जो स्वयं यथाजातरूपधर हुए हैं; उनके अयथाजातरूपधरपने के कारणभूत मोह-राग-द्वेषादि भावों का अभाव होता ही
गाथा २०५ - २०६
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है और उनके अभाव के कारण; जो कि उनके सद्भाव में होते थे ह्र ऐसे १. वस्त्राभूषण का धारण, २. सिर और दाढ़ी मूछों के बालों का रक्षण, ३. परिग्रह का होना, ४. सावद्य योग से युक्त होना और ५. शारीरिक संस्कार (शृंगार) का करना ह्न इन पाँचों का अभाव भी होता ही है। इसकारण १. जन्म के समय जैसा नग्नरूप, २. सिर और दाढ़ी-मूछ के बालों का लुंचन, ३. शुद्धत्व (अपरिग्रहरूप दशा), ४. हिंसादि पापों से रहितपना और ५. शारीरिक शृंगार का अभाव भी होता ही है; इसलिए यह बहिर्लिंग है ।
आत्मा यथाजातरूपधरपने से दूर किये गये अयथाजातरूपधरपने के कारणभूत मोह-राग-द्वेषादि भावों का अभाव होने से, जो उनके सद्भाव में होते थे ह्र ऐसे १. ममत्व और कार्य की जिम्मेदारी लेने के परिणाम, २. शुभाशुभ से उपरक्त उपयोग और तत्पूर्वक तथाविध योग की अशुद्धि से युक्तता तथा ३. परद्रव्य से सापेक्षता ह्न इन तीनों का अभाव होता है; इसलिए उस आत्मा के १. मूर्च्छा और आरंभ से रहितता, २. उपयोग और योग की शुद्धता और ३. पर की अपेक्षा से रहितता होती ही है; इसलिए यह अंतरंग लिंग है।"
आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान ही करते हैं।
कविवर वृन्दावनदासजी इन गाथाओं के भाव को १ - १ मनहरण कवित्तों में सरलता से प्रस्तुत कर देते हैं; जो इसप्रकार है ह्र ( मनहरण ) जथाजात दर्वलिंग ऐसो होत जहाँ,
परमानू परमान परिगह न रहतु है । शीस और डाढी के उपारि डारै केश आप,
शुद्ध निरगंथपंथ मंथ के गहतु है ।। हिंसादिक पंच जाके रंच नाहिं संचरत,
ऐसे तीनों जोग संच संच निबहतु है ।