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प्रवचनसार अनुशीलन
इनके भक्त ह्न दोनों ही लोग पाप के भार से भरे हुए अपनी पाप करन फल भोगेंगे।
( दोहा )
विषय कषायी जीव को, गुरु करि सेयें मीत ।
उत्तम फल उपजै नहीं, यह दिढ़ करु परतीत ।। ४४ ।।
जो लोग विषयकषायी जीवों को गुरु मानकर उनकी सेवा करते हैं; उन्हें उत्तम फल की प्राप्ति नहीं होती ह्र दृढ़तापूर्वक इसप्रकार की प्रतीति करना चाहिए।
( मत्तगयन्द )
जो सब पाप क्रिया तजि कै, सब धर्म विषै समता विसतारें । ज्ञानादि सबै गुन को, जो आराधत साधत हैं श्रुतिद्वारें ।। होहिं सोई शिवमारग के, बर सेवनहार मुनीश उदारें । आपु त भवि को भव तारहिं, पावन पूज्य त्रिलोक मझारें ।। ४५ ।। जो मुनिराज सभीप्रकार की पापक्रियाओं को तजकर सभी धर्मों में समताभाव धारण करते हैं और शास्त्रों के आधार पर ज्ञानादि सभी गुणों की आराधना करते हैं; वे मुनिराज ही उदारतापूर्वक मुक्तिमार्ग का सेवन करनेवाले हैं। वे परमपूज्य मुनिराज त्रिलोक में स्वयं तर जाते हैं और भव्यजीवों को भी भवसागर से पार उतार देते हैं।
आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"शुद्ध चैतन्यतत्त्व का आश्रय छोड़कर पाँच इन्द्रिय विषयों को भोगनेवाला अधर्मी है। जिसे राग की मंदता भी नहीं है, वह जीव पापी ही है; क्योंकि क्रोध - मान-माया-लोभ के समस्त परिणाम पापरूप ही हैं।
अज्ञानी जीवों के प्रति जो अनुराग करता है अर्थात् जो कुदेवादि को मानता है, रागी -द्वेषी-देवताओं से धर्म या पुण्य मानता है, उसका पुण्य भी पापरूप परिवर्तन हो जाता है।
१. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ३८४
गाथा २५८ - २५९
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जिन गुरुओं को विषय- कषाय की आस है, ब्रह्मचर्य नहीं है, लक्ष्मी और व्यापार में लाभ दिखता हैं; वे सब कुगुरू है। पैसा आदि कमाने क भाव करना अथवा उसका उपाय बताना तो पाप ही है और पाप की अनुमोदना करनेवाला भी पापी ही है।
जिसे रागरहित अपने शुद्धस्वभाव का भान है, उसे सर्वज्ञदेव का भान है। सर्वज्ञदेव को वीतरागदशा वर्तती है। वे एक समय में तीन काल और तीन लोक को जानते हैं, उन्हें आहारादि नहीं होते, वे अठारह दोषों से रहित होते हैं।
जिसे वस्तुस्वरूप का भान है, उसे गुरु की भी यथार्थ प्रतीति है । चैतन्य स्वभाव के उग्र अवलम्बन से मुनियों का तीव्र राग घट गया है और वे केवलज्ञान लेने की तैयारी में हैं। उनका राग घटने से बहुत से संयोग छूट गये हैं।
शरीर की क्रिया तथा पुण्य से धर्म माननेरूप सबसे बड़ा पाप जिनके विराम हो चुका है, वे मुनिराज अपने चैतन्य स्वभाव के आश्रय से धर्म होता है ह्र ऐसा मानते हैं। शरीरादि को परपदार्थ, पुण्य-पाप को विकार तथा निर्विकारी स्वभाव को अपना मानते हैं। उनके मिथ्यात्वरूप पाप टल गया है और संसार के अन्य भी बहुत से पापभाव विराम हो चुके हैं। *
जिसप्रकार सिद्ध भगवन्तों ने सिद्धपद पाया है; उसीप्रकार मुनिराज अपने एकाग्र स्वरूप मोक्षमार्ग को दर्शाते हैं। मुनिराज को सुमार्ग प्रगटा है । अन्तरस्वरूप लीनता बढ़ गई है। बाह्य आभ्यन्तर वीतरागी नग्नदशा वर्तती है। उपकरण रूप में मात्र मयूरपींछी और कमण्डल होता है । आहार लेने का, व्याख्यान या शास्त्र बाचने का अल्पराग वर्तता है। शेष अन्तर्दशा में अत्यधिक निर्मलता है।
मुनिराज स्व एवं पर को मोक्ष एवं पुण्य का स्थान दर्शाते हैं। आप शुद्धस्वभाव में अत्यधिक उग्र पुरुषार्थ करते हैं। कदाचित् अल्पराग शेष १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ३८४
३. वही, पृष्ठ ३८६-३८७
२. वही, पृष्ठ ३८४-३८५
४. वही, पृष्ठ ३८८