Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 113
________________ प्रवचनसार गाथा २६५-२६७ विगत गाथा में श्रमणाभास का स्वरूप स्पष्ट करने के उपरान्त अब इन गाथाओं में यह बताते हैं कि जो श्रमण सच्चे श्रमण का आदर नहीं करते अथवा स्वयं गुणहीन होने पर भी गुणवालों से विनय कराना चाहते हैं अथवा स्वयं महान होने पर भी अपने से हीन श्रमणों को वंदनादि करते हैं, वे सभी सच्चे श्रमण नहीं हैं। गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं ह्र अववददि सासणत्थं समणं दिट्ठा पदोसदो जो हि । किरियासु णाणुमण्णदि हवदि हि सो णट्टचारित्तो ।। २६५ ।। गुणदोधिगस्स विणयं पडिच्छगो जो वि होमि समणो त्ति । होज्जं गुणाधरो जदि सो होदि अणंतसंसारी ।। २६६ ।। अधिगगुणा सामण्णे वट्टंति गुणाधरेहिं किरियासु । जदि ते मिच्छुवजुत्ता हवंति पब्भट्टचारित्ता ।। २६७ ।। ( हरिगीत ) जो श्रमणजन को देखकर विद्वेष से वर्तन करें। अपवाद उनका करें तो चारित्र उनका नष्ट हो || २६५ ॥ स्वयं गुण से हीन हों पर जो गुणों से अधिक हों। चाहे यदि उनसे नमन तो अनंतसंसारी हैं वे ॥ २६६ ॥ जो स्वयं गुणवान हों पर हीन को वंदन करें। हगमोह में उपयुक्त वे चारित्र से भी भ्रष्ट हैं || २६७॥ जो श्रमण शासनस्थ अर्थात् निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्ग में स्थित श्रमण को देखकर द्वेष से उनका अपवाद करता है और सत्कारादि क्रियाओं से सहमत नहीं होता; उस श्रमण का भी चारित्र नष्ट हो जाता है। गुणों में होने पर भी 'मैं भी श्रमण हूँ' ह्र ऐसा मानकर जो श्रमण गुणवालों से नमस्कार करवाना चाहता है; वह श्रमण अनंत संसारी है। स्वयं अधिक गुणवाला होने पर भी अन्य गुणहीनों को वंदनादि गाथा २६५ - २६७ करते हैं; वे भी मिथ्योपयुक्त होने से चारित्र से भ्रष्ट हो जाते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र २१७ “जो श्रमण द्वेष के कारण आगमानुसार आचरणवाले ज्ञानी श्रमण का भी अपवाद करता है और उसके प्रति विनयादि क्रियायें करने में सम्मत नहीं होता; कषायानुरंजित होने से उस श्रमण का चारित्र नष्ट हो जाता है। स्वयं जघन्यगुणवाला होने पर भी जो श्रमण 'मैं भी श्रमण हूँ' ह्र इसप्रकार के अभिमान के कारण अधिक गुणवाले श्रमणों से विनय चाहता है; वह श्रमण अभिमान के कारण कदाचित् अनंत संसारी भी हो सकता है। स्वयं गुणवान होने पर भी अन्य गुणहीन श्रमणों की वंदनादि करते हैं, वे श्रमण मोह के कारण मिथ्याभावों में युक्त होते हुए चारित्र से भ्रष्ट होते हैं। " इन गाथाओं के भाव को पंडित देवीदासजी २ इकतीसा सवैया और १ कवित्त में तथा कविवर वृन्दावनदासजी २ मत्तगयन्द सवैया, १ द्रुमिला और १ दोहा ह्र इसप्रकार ४ छन्दों में प्रस्तुत करते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी कृत छन्द इसप्रकार हैं ह्र ( मत्तगयन्द ) श्री जिनशासन के अनुसार, प्रवर्ततु हैं जे महामुनिराई । जो तिनको लखि दोष धरें, अनआदर तैं अपवाद कराई ।। जे विनयादि क्रिया कही वृन्द, करै न तहां सो सुहर्ष बढ़ाई । चारित भ्रष्ट कहावत, यों भगवंत भनी सुनि भाई ।। ५२ ।। जो महामुनिराज जिनशासन के अनुसार प्रवृत्ति करते हैं; उन्हें देखकर भी जो मुनि उनका अनादर करते हैं, अपवाद करते हैं, प्रसन्नतापूर्वक विनयादि क्रिया नहीं करते हैं; वे मुनि चारित्र भ्रष्ट कहे जाते हैं। हे भाई! सुनो, अरहंत भगवान ऐसा कहते हैं।

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