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प्रवचनसार अनुशीलन
(द्रुमिला)
अपने गुन तैं अधिक जे मुनी, गुन ज्ञान सु संजम आदि भरै । तिनसों अपनी विनयादि चहै, हम ह मुनि हैं इमि गर्व धरै ।। तब सो गुनधारक होय तऊ, मुनि मारग तैं विपरीत चरै । वह मूढ़ अनन्त भवावलि में, भटकै न कभी भवसिंधु तरै ।। ५३ ।। जो मुनिराज गुणों में अपने से अधिक हैं, ज्ञान और संयम से भरित हैं; 'हम भी मुनिराज हैं' ह्र इस अभिमान में चूर जो मुनि उनसे भी विनयादि की चाह रखते हैं; वे कितने ही गुणों के धारक क्यों न हों, पर मुनिमार्ग से विपरीत आचरण करनेवाले हैं। वे संसार-समुद्र से कभी पार को प्राप्त नहीं करेंगे, अनन्तकाल तक संसार में ही भटकेंगे।
( मत्तगयन्द )
आपु विषै मुनि के पद के गुन, हैं अधिके उतकिष्ट प्रमानै । सो गुनहीन मुनीनन की, जो करै विनयादि क्रिया मनमानै ।। तो तिनके उरमाहिं मिथ्यात, पयोग लसै लखि लेहु सयानै । है यह चरितभ्रष्ट मुनी, अनरीति चलै जतिरीति न जानै ।। ५४ ।। यद्यपि अपने में मुनिपद के उत्कृष्ट और अधिक गुण हैं, तथापि गुणहीन मुनियों की विनयादि क्रिया करते हैं; उनके हृदय में मिथ्यात्व भाव है। हे चतुर मुनिजनों ! इस बात को अच्छी तरह समझ लो कि वे चारित्र भ्रष्ट हैं, जग की रीति को न जानते हुए अनरीत (विपरीत मार्ग) पर चलने वाले हैं।
(दोहा)
विनय भगत तो उचित है, बड़े गुनिनि की वृन्द । हीन गुनिनि को वंदतै, चारित होत निकंद ।। ५५ ।।
जैसी विनय व भक्ति गुणधारी बड़े मुनिराजों की किया जाना उचित है; वैसी विनय व भक्ति गुणहीन मुनिजनों की करने से चारित्र नष्ट होता है । आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
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गाथा २६५ - २६७
“जो मुनिराज अन्य भावलिंगी मुनिराज के प्रति अपशब्द बोलते हैं, द्वेष करते हैं, वे मुनि चारित्र से भ्रष्ट हैं । स्वयं दोषयुक्त होनेपर भी जो दोष को दोषरूप स्वीकार नहीं करते, वे श्रद्धा से भ्रष्ट हैं । "
भावलिंगी मुनिराजों के प्रति कोई मुनिराज ईर्ष्याभाव रखें तो उन मुनिराजों के चारित्र में दोष आता है।
यदि कोई मुनिराज भूमिका का भान न करके अन्य मुनिराजों के प्रति विनयभाव नहीं करें अथवा अपने से अधिक गुणयुक्त मुनिराजों से स्वयं की विनय कराना चाहे तो उन्हें चारित्र नहीं होता ।
अन्य अधिक गुणयुक्त मुनिराजों की अपेक्षा अपनी निर्मलता कम होने पर भी ‘मैं मुनि हूँ' ऐसे अहंकार की इच्छा करके जो स्वयं के विनयादि की इच्छा करता है, उसे अपनी भूमिका एवं पर्याय का विवेक नहीं है; अतः वह चारित्रभ्रष्ट है तथा यदि वह मुनिराज अपने सर्वथा विवेक को ही भूल जाए तो दर्शन से भी भ्रष्ट है। अनंतसंसारी है।
जो मुनिराज अधिक गर्व रखते हैं और अधिक निर्मलतायुक्त मुनियों से अपने विनय आदि की भावना करते हैं, उन्हें वस्तुस्वभाव एवं धर्मात्मा जीवों के प्रति अनादर है । वे मुनिराज शास्त्रों का अध्ययन करते हों, व्रततपादि का पालन करते हों फिर भी अनंतसंसारी हैं।"
जो मुनिराज अधिक गुणयुक्त होने पर भी अपने से हीन मुनियों का आदर-सत्कारादि करते हैं, वे निजस्वरूप की सावधानी से चूक जाते हैं। पर्याय का विवेक भूलकर मिथ्याभाव में जुड़ते हैं और चारित्र से भ्रष्ट हो जाते हैं।
अधिक गुणवाले मुनिराजों को अपने से कम गुणवाले मुनिराजों की वंदनादि नहीं करना चाहिए; तथापि कोई मुनिराज मोह के वशीभूत होकर निम्न दशावाले को प्रसन्न करने के लिए वन्दनादि करें तो वह चारित्र से भ्रष्ट है ।" "
१. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ४२७
२. वही, पृष्ठ ४२८
५. वही, पृष्ठ ४३२
३. वही, पृष्ठ ४३०-४३१ ६. वही, पृष्ठ ४३४
४. वही, पृष्ठ ४३१ ७. वही, पृष्ठ ४३४