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प्रवचनसार गाथा २७५ पंचरत्नसंबंधी विगत चार गाथाओं में संसारतत्त्व, मोक्षतत्त्व और मोक्षतत्त्व के साधनतत्त्व का स्वरूप और मोक्षतत्त्व और उसके साधनतत्त्व की महिमा बताकर अब इस अन्तिम गाथा में; न केवल पंचरत्न अधिकार की अन्तिम गाथा में, अपितु प्रवचनसार परमागम की इस अन्तिम गाथा में शिष्यजनों कोशास्त्रफल से जोड़ते हुए इस शास्त्र का समापन करते हैं।
गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र बुज्झदि सासणमेयं सागारणगारचरियया जुत्तो। जो सो पवयणसारं लहुणा कालेण पप्पोदि ।।२७५।।
(हरिगीत) जो श्रमण-श्रावक जानते जिनवचन के इस सार को। वे प्राप्त करते शीघ्र ही निज आत्मा के सार को।।२७५|| जो साकार-अनाकार चर्या से युक्त रहता हुआ इस शासन (उपदेश) को जानता है; वह अल्पकाल में ही प्रवचन के सार (भगवान आत्मा) को प्राप्त करता है। ___ आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र ___"सुविशुद्ध ज्ञान-दर्शन मात्र स्वरूप में अवस्थित परिणति में लगा होने से साकार- अनाकार चर्या से युक्त जो शिष्यवर्ग स्वयं समस्त शास्त्रों के अर्थों के विस्तार-संक्षेपात्मक श्रुतज्ञानोपयोगपूर्वक केवल आत्मा का अनुभव करता हुआ इस उपदेश को जानता है; वह शिष्यवर्ग वस्तुतः भूतार्थ स्वसंवेद्य दिव्य ज्ञानानन्दस्वभावी, पूर्वकाल में अननुभूत, तीनों काल के निरवधि प्रवाह में स्थायी होने से सम्पूर्ण पदार्थों के समूहात्मक प्रवचन का सारभूत भगवान आत्मा को प्राप्त करता है।"
ध्यान रहे उक्त गाथा की इस तत्त्वप्रदीपिका टीका में, गाथा में समागत
गाथा २७५
२४७ लहुणा कालेण पद की उपेक्षा हो गई है; जबकि जयसेनीय तात्पर्यवृत्ति टीका में उक्त पद का अर्थ अल्पकाल में उपलब्ध है।
दूसरी बात यह है कि यहाँ तत्त्वप्रदीपिका टीका में गाथा में समागत सागारणगार पद का अर्थ साकार-अनाकार (ज्ञान-दर्शन) उपयोग किया है और जयसेनीय तात्पर्यवृत्ति टीका में श्रावक और साधु किया गया है। __ पण्डित देवीदासजी एवं वृन्दावनदासजी ने भी सागारणगार पद का अर्थ करने में और लहुणा कालेण (अल्पकाल में) पद का प्रयोग करने में आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति टीका का अनुकरण किया है। __ आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"विशुद्ध ज्ञान-दर्शनस्वरूपी मैं हूँ उसमें लीनता करना ही प्रवचन का सार है। जिसप्रकार छांछ को बिलोनेरूप सम्पूर्ण क्रिया का सार एक मक्खन की प्राप्ति है; उसीप्रकार शरीर बाह्य में स्थित है, इसके साथ हमारा कोई संबंध नहीं है। पुण्य-पाप के भाव भी दूर करने योग्य हैं। एक मात्र विशुद्ध दर्शन-ज्ञान स्वभाव की प्रतीति, ज्ञान और रमणता ही करने योग्य है। यही प्रवचन का सार है।
जिनमन्दिर बनने के पश्चात् ऊपर स्वर्णकलश विराजमान करते हैं, उसीप्रकार यह अन्तिम गाथा प्रवचनसार पूर्ण होने पर स्वर्णकलश के समान है।
इसप्रकार प्रवचन का सार ग्रहणकर शिष्यवर्ग, सत्यार्थ, स्वसंवेद्य, ज्ञानानन्द स्वभाव से युक्त आत्मा को पाते हैं।
आत्मा को बारंबार सुनने-समझने में मुमुक्षु को प्रमाद नहीं आता, किन्तु इससे ज्ञान की दृढ़ता होती है, अतः जो शिष्य प्रमादरहित होकर प्रवचन का सार समझते हैं, वे निज ज्ञानानन्द आत्मा का अनुभव करते हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ४९७ २. वही, पृष्ठ ५००
३. वही, पृष्ठ ५०१