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हो गया है ह्र ऐसा भाव नमस्कार हो।"
आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि यहाँ यह कहा गया है कि इस मोक्ष के कारणभूत शुद्धोपयोग के माध्यम से सम्पूर्ण इष्ट मनोरथ सिद्ध होते हैं ह्र ऐसा मानकर, शेष मनोरथों को छोड़कर, इसमें ही भावना करना चाहिए।
इस गाथा के भाव को पंडित देवीदासजी १ छन्द में और कविवर वृन्दावनदासजी १ मनहरण और १ दोहा ह्न इसप्रकार २ छन्दों में प्रस्तुत करते हैं। पंडित देवीदासजी कृत छन्द इसप्रकार है (सवैया इकतीसा )
वीतरागभाव जाके हिरदैं प्रगट भये,
दर्शन
सोई मोखसाधक जतीस्वर कहायो है । सु ग्यान और चरन की एकता सौं, मोछ रूप तिन्हि कैं जतित्व पद आयौ है । सवै तत्त्व के सुपरखैया मोख के जवैया,
सिद्ध ह हैं जे सु औसो पंथ तिन्हि पायौ है । मोख मारगी महंत सुद्ध उपयोगवंत,
जाक देवीदास बार-बार सीसु नायौ है ।। ९५ ।। जिनके हृदय में वीतरागभाव प्रगट हुआ है; मोक्ष के साधक वे ही यतीश्वर कहे जाते हैं। दर्शन, ज्ञान और चारित्र की एकतारूप मोक्षमार्ग में चलने से उन्हें यतिपद की प्राप्ति हुई है। सभी तत्त्वों के परखनेवाले वे यति मोक्ष जानेवाले हैं और ऐसा रास्ता जिन्होंने प्राप्त किया है, वे एक प्रकार से सिद्ध ही हैं। उन शुद्धोपयोगी मोक्षमार्गी महान सन्तों को यह देवीदा बारम्बार शीश नवाकर नमस्कार करता है ।
प्रवचनसार अनुशीलन
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
'आत्मा में तीनकाल और तीनलोकवर्ती समस्त पदार्थों को जानने पूर्व शक्ति विद्यमान है, वह शुद्धात्मा के आश्रय से ही प्रगट होती है ।
दया - दानादि के परिणाम से केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। निज आत्मा
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के अवलंबन से शुद्धोपयोग की प्राप्ति होती है; अतः शुद्धोपयोगी जीव ही निर्वाण प्राप्त करता है । '
मैं त्रिकाली शुद्ध आत्मा हूँ। मेरा तत्त्व पर से भिन्न है। ज्ञानस्वभावी ध्रुवतत्त्व में एकाग्र होने पर शुद्धता प्रगट होती है, केवलदर्शन और केवलज्ञान प्रगट होता है। अनन्त पदार्थों को एक समय में अभेदरूप से देखनेवाला केवलदर्शन है तथा उसीसमय समस्त पदार्थों को भेदपूर्वक जाननेवाला केवलज्ञान है।
केवलज्ञान अपने ज्ञानस्वभाव में एकाग्र होने पर प्रगट होता है, पुण्य-पाप अथवा महाव्रत के परिणामों से प्रगट नहीं होता। जो स्वयं को जाननेवाला है, वह किसे नहीं जानेगा?
वह जीव सम्पूर्ण पदार्थों को जानता है। यह सम्पूर्णज्ञान अपने सुखस्वभाव में से आता है। ॐ का जाप करें, ध्यान करें, तीर्थंकर का लक्ष करें तो केवलज्ञान प्रगट नहीं होता। किसी गुरु अथवा भगवान की कृपा से भी केवलज्ञान प्रगट नहीं होता; अपितु शुद्धोपयोग से केवलज्ञान प्रगट होता है।
अब, आचार्यदेव कहते हैं कि वचनविस्तार से बस होओ। सर्व मनोरथ के स्थानभूत, मोक्षतत्त्व का साधनतत्त्व शुद्धोपयोग है। शुद्धोपयोग से समस्त मनोरथ सिद्ध होते हैं। जिसप्रकार योग्य काली भूमि में भिन्नभिन्न जातियों के फलों की प्राप्ति होती है, उसीप्रकार शुद्धोपयोग से साधुपद, केवलदर्शन - केवलज्ञान, निर्वाण तथा सिद्धदशा की प्राप्ति होती है ह्न इसलिये ऐसे शुद्धोपयोग को भावनमस्कार हो । ३”
इस गाथा में निष्कर्ष के रूप में यह कह दिया गया है कि शुद्धोपयोगी सन्तों के ही सच्चा श्रामण्य ( मुनिपना) है और वे ही सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र से सम्पन्न हैं। अधिक क्या कहें ह्र एक उनको ही मोक्ष की प्राप्ति होनेवाली है। इसलिए हम सिद्धदशा प्राप्त करने में संलग्न शुद्धोपयोगी सन्तों और सिद्धों को बारम्बार नमस्कार करते हैं।
१. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ४७७ २. वही, पृष्ठ ४८५
३. वही, पृष्ठ ४८८