Book Title: Pravachansara Anushilan Part 03
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 118
________________ गाथा २७० २२७ प्रवचनसार गाथा २७० विगत गाथाओं में असत्संग का निषेध करके अब इस गाथा में एकमात्र सत्संग ही करने योग्य है ऐसा दिखाते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्र तम्हा समं गुणादो समणो समणं गुणेहिं वा अहियं । अधिवसदुतम्हि णिच्चं इच्छदिजदि दुक्खपरिमोक्खं ॥२७०।। (हरिगीत) यदि चाहते हो मुक्त होना दुखों से तो जान लो। गुणाधिक या समान गुण से युक्त की संगति करो॥२७०|| इसलिए यदि दुःखों से मुक्त होना चाहते हो तो हे श्रमणो ! समान गुणवाले अथवा अधिक गुणवाले श्रमणों के संग सदा निवास करो। आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “आत्मा परिणाम स्वभाववाला है; इसलिए अग्नि के संग में रहते हुए पानी के समान संयमी श्रमण भी लौकिकजनों के संग से असंयमी हो जाता है। इसलिए दुःखों से मुक्ति चाहने वाले श्रमणों को समान गुणवाले श्रमणों के साथ अथवा अधिक गुणवाले श्रमणों के साथ सदा निवास करना चाहिए। इसप्रकार शीतलघर के कोने में रखे हुए शीतल जल की भाँति समान गुणवालों की संगति से गुणों की रक्षा होती है और अधिक शीतल बर्फ के संपर्क में रहनेवाले शीतल पानी के समान अधिक गुणवालों की संगति करने से गुणों में वृद्धि होती है।" इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में आचार्य अमृतचन्द्र के भावों को ही प्रस्तुत कर देते हैं। इसीप्रकार पंडित देवीदासजी भी गाथा व टीका के भाव को १ छप्पय छन्द में उसी रूप में प्रस्तुत कर देते हैं। __ कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को अत्यधिक विस्तार के साथ स्पष्ट करते हैं। इसमें वे २६ छन्दों का प्रयोग करते हैं। आरंभिक छन्दों में गाथा और टीका के भाव को विस्तार से सोदाहरण समझाते हैं; तदुपरान्त सत्संग की महिमा बखान करते हुए दोहों की झड़ी लगा देते हैं। उनमें से कतिपय दोहे इसप्रकार हैं ह्र (दोहा) ज्यों पारस संजोग तैं, लोह कनक है जाय । गरल अमिय सम गुन धरत, उत्तम संगति पाय ।।७१।। जैसे लोहा काठ संग, पहुँचे सागर पार । तैसे अधिक गुनीनि संग, गुन लहि तजहि विकार ।।७२।। ज्यों मलयगिरि के विर्षे, बावन चंदन जान । परसि पौन तसु और तरु, चन्दन होंहि मान ।।७३।। त्यों सतसंगति जोग तैं, मिट सकल अपराध । सुगुन पाय शिवमग चलै, पावै पद निरुपाध ।।७४।। जिसप्रकार पारस पत्थर के संयोग से लोहा सोना हो जाता है; उसीप्रकार उत्तम संगति पाकर विष भी अमृत के समान गुण धारण कर लेता है। जिसप्रकार लोहा काष्ठ की संगति पाकर सागर को पार कर लेता है; उसीप्रकार अधिक गुणवालों की संगति से गुण प्रगट होते हैं और विकार नष्ट हो जाते हैं। जिसप्रकार मलयागिरि पर्वत पर बावन चंदन होता है; उससे स्पर्श करती हुई वायु की संगति से अन्य वृक्ष भी चंदन के समान सुगंधित हो जाते हैं। उसीप्रकार सत्संगति के योग से सम्पूर्ण अपराध मिट जाते हैं; सुगुन प्रगट हो जाते हैं और मुक्तिमार्ग में चलकर मुनिराज मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं।

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